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Tuesday 20 November 2012


               पतझड़

भूरी ,पीली - पीली ,कुछ सुनहरी 
मटमैली ,कहीं टंगती ,कहीं झरती 
हल्दी सी रंगत वाली  प्रकृति 
सिंगार के पहले भी इतराती ।
वो बदरंगी पत्तियाँ सूखती हैं 
पतंग सरीखी नभ में तरती हैं ।

दुःख के बादल जब घिरते हैं 
हम उसे पतझड़ की संज्ञा देते हैं 
पतझड़ अपने साथ ढोता है 
ग्लानि,गम ,उदासी ,उत्ताप ।

पर ,इस वीरानगी में भी जीवन्तता है 
बिछ जाती हैं सुखी पत्तियाँ राहों में 
कुचल कर पैरों तले
चरमराने की विशिष्ट ध्वनि 
मचाती है वीरानों में ।
उड़ती है हवाओं संग जब 
जाने किस व्यथित हृदय की पाती बन 
पहुँच जाती पिय पास ,जहां न जाए तन ।

सच ,खोने के बाद ही है  पाने का सुख 
रिक्तता में होती समग्रता 
सुख की अहमियत है तभी 
जब दुःख  कुठराघात करता ।
पतझड़ होता है बेरौनक 
वसंत तभी लगता मनमोहक ।
पतझड़ केवल ऋतुचक्र नहीं 
वह जीने की कला है 
जीवट है ,जिजीविषा प्रबल कर 
एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माता है ।

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर लिखा वाह सच में प्रकृति ही इशारों इशारों में हमें जीने की कला सिखाती है बहुत बहुत बधाई यदि इस और किसी का ध्यान नहीं गया तो मंगलवार मेरी चर्चा में इस रचना को स्थान जरूर मिलेगा

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  2. बहुत आभार राजेशजी ,धन्यवाद कि आपने इसे लोकप्रिय चर्चा मंच पे लगाया

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  3. पतझड़ लाता है सदा, वासन्ती सन्देश।
    पीत रंग के बाद ही, मिलता नव परिवेश।।

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