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Tuesday 23 April 2013


                   लड़की 


पिता की अंगुली पकड़ कर चलने वाली लड़की 

देखते - देखते सयानी हो जाती है 
अपने निवाला का फ़िक्र छोड़कर 
पिता की दवाई का खर्च उठाने लगती है ।
माँ ने जब से बिस्तर पकड़ा है 
रसोई को करीने से सजाने की जिम्मेवारी 
भी वह उठाने लगी है 
अपना सोलहवां वसंत देखने से पहले ही 
वह बड़ी हो जाती है ।
घर के पुराने सामान जैसे बिकते हैं 
वह भी एक दिन बेच दी जाती है ।
पति की छाया बन कर चलने वाली लड़की 
अपने सुगढ़ स्पर्श से 
एक मकान को घर बना देती है 
रोटी की सौंधी खुशबू से लेकर 
बैठक में रखे रजनीगंधा की तरह 
वह महकती  रहती है।
सुबह की शुरुवात उससे होती है 
दिन भर चक्कर घुरनी की तरह घुमती 
रात को बिस्तर पे जाने वाली 
वह अंतिम प्राणी होती है  
एक लड़की कहाँ नहीं बसती है ?
 कमरे के कोने - कोने से लेकर 
फिजाओं में जहां तक नज़र जाए 
वह ही वह होती है ।
अपने बच्चों में जान बसाने वाली लड़की 
एक दिन उसके रहमो करम की मोहताज़ हो जाती है ।
अपनी सुध गवां कर 
बेटे - बहू की सेवा में 
अहर्निश जुड़ी रहती है 
तब घर की रानी सबसे संकीर्ण 
कमरे में ठेल दी जाती है 
उसी एक पुराने सामान की तरह 
जो अपनी अहमियत खो बैठा है ।
जिम्मेदारियों तले पिस - पिस कर 
जीने वाली लड़की 
जानती है कि  वह है ,तो घर है ।
काश ऐसी पहचान उन सबमें होती 
जिनसे वह बेटी ,पत्नी और माँ 
के रूपों में जुड़ी होती है ।

Saturday 20 April 2013


मेरी  तीन  कविताएँ


 दीवार
हमारे दरम्यां एक दीवार है
बहुत ही पारदर्शी , झिलझिली सी
फिर भी हमारी आवाजें पहुँचती हैं
सूरत ही एक - दूजे की दिखती है
यह दीवार है ख़ामोशी की
जो कुछ तरंगें प्रवाहित कर
हमारे हृदय के तार झंकृत कर देती है
और एक - दूसरे को बेहद करीब ला देती है 
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दूर्वा
द्रुमों की कतार ने अनेक बार उलाहना दिया
हम भी क्यों होते उनकी तरह विशाल
छाया और सुकून की बरसात करते
हवा का एक तेज़  झोंका जब
विलग कर दिया शाख और पात को
तब मैंने भी जतला दिया
मैं तो   दूर्वा ही भली ,इतनी छोटी कि
कहीं भी उग जाऊं ,कभी टूट पाऊं
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नदी
अपनी उष्णता से दिवास्पति
पिघला जाता मुझे द्रुतगति
कतरा - कतरा बर्फ का शिला
पानी बन बह निकला
मैं निर्विरोध ,अविरल बहती
रुकना नहीं मेरी प्रकृति
सभ्यताओं का उत्थान - पतन
किनारों पर मेरे है दफ़न
मेरी सीमाओं को बाँध कर जब छला
मैंने विपदाओं में स्वयं को उड़ेला
विकराल ,वीभत्स जब होती हूँ
मानवता का विध्वंश करती हूँ
मेरी गतियों का बन अवरोधक
मैं हूँ जीवन - पर्याय ,यही ज्ञान - उद्बोधक