आई री ऋतु वसंत सखी
-------------------------------------------------
प्रकृति जिस समय अपने चरमोत्कर्ष पर होती है उसी समय जीवन का उदात्त काल होता है। वसंत वनस्पति के संवत्सर तप का अत्यंत मनमोहक पुरश्चरण है। सुरभित पुष्पों के बहुरंगी प्रसाधन से युक्त प्रकृति हमारी अंतश्चेतना का साक्षात्कार ऐसी उदात्त अनुभूतियों से कराती है जो अलौकिक है। प्राणों की अनिर्वचनीय रसदशा की उदात्तता सौंपने वाली सृष्टि के अजस्र औदार्य का प्रतिफलन है वसंत। प्रकृति के सान्निध्य में ही मानव चेतना का विकास हुआ। क्षितिज के उस पार से वासंती विभव से आप्यायित वसुंधरा को पुलक स्पर्श देने के लिए भुवन भास्कर विशेष ऊर्ज़ा से भरे होते हैं जो मकर संक्रांति के बाद से दिखाई देने लगता है। वसंत की मादकता धरती के कण - कण में समा जाती है ,इतना मधुमय कि इस ऋतु को मधुमास के नाम से जाना जाता है। "आयी री, ऋतु वसंत सखी " एक साथ आनंद ,उल्लास और कौतुहल पैदा करता है।
ऋतुराज
के आविर्भाव में वन - प्रांतर और लता - गुल्म कोमल पत्तों से अपना श्रृंगार करते
हैं। वातावरण दुग्धधवल हास्य के झोंके से अनुगुंजित होता दिखता है। प्रमोदिनी सी
यामिनी और मधुरहासिनी सी उषा गेहूं की बालियों पर , तीसी की मरकती डालियों और सरसों के
पुखराजी फूलों पर अपना प्रभाव छोड़ने लगती हैं। किसलय ,कलिका ,पुष्प और नवलता विहान जैसे अभिनव श्रृंगार वसंत की अगवानी के लिए
हैं। अलिकुल का मंडराना ,मलय पवन का झूमना और कोयल की मधुर तान
जीवन को सुखमय बनाने के रसायन हैं। पतझड़ की मार से अभिशप्त, झंखाड़ पड़े पर्वतों पर टेसू की टहक लाल
सिंदूरी आभा चमकने लगतीं हैं मानो लाल चुनर ओढ़े कोई नई नवेली दुल्हन स्वर्ग से
धरती पर पधार रही हो। शीत का प्रकोप झेलती नदियाँ हिमवत थीं ,अब पारे सी पारदर्शी हो रही हैं।
शिखिसमूह नर्तन करते हैं। मकरंद और पराग की धूम मची होती है। वसंत सचमुच वसंत है
जिसमे केवल आनंद का वास है। इसलिए तो भगवान श्रीकृष्ण ने अपने को "ऋतुनां
कुसुमाकरः "कहा है।
वसंत स्वाभाविक है और प्रकृति अनंत। परिवर्तन
बाहरी है पर मनुष्य और प्रकृति में आंतरिक
एकता है। निराला का वसंत बोध ईश्वरीय है। वह प्रकृति के साथ प्राणियों में नवजीवन
का संचार करते हैं। "आज प्रथम गाई पिक पंचम " में सौंदर्य का पहला अनुभव जीवन को पूर्णतः बदल
देता है और "गूंजा है मरू विपिन मनोरम "में सौंदर्य की लयात्मक
अभिव्यक्ति है। कविहृदय शायद ही इस ऋतु
में मूक बैठे!यह तो महाकाव्य और पुण्य श्लोक रचने के लिए प्रेरित करने वाला काल
है। त्रिपुरासुर के विनाश के लिए जब कामदेव ने योगिराज शिव की समाधि भंग करनी चाही
तो उसे वसंत की सहायता लेनी पड़ी। अपनी संस्कृति की समृद्धि पर भी एक नज़र डालें। जो
वसंत कामदेव का सहायक है वही जीवन में रत होने के लिए मनुष्य को प्रोत्साहित करता
है और वही रंग दे वासंती चोला में आत्मोत्सर्ग के लिए भी प्रेरित करता है। वसंत
मुक्ति का प्रतीक है तभी तो कली जब फूल
बनती है तब अपनी संकीर्णता से मुक्ति पा
जाती है। वसंत का ध्येय भी यही है। यह जीवन ,मुक्ति
और सौंदर्यानुभव तीनों रूपों में लोक को समर्पित है।
वरद साहित्य और संस्कृति की
वरदायिनी वागीश्वरी सरस्वती वसंत की शोभा में चार चाँद लगा देती है। आम्रमंजरियों
का पहला चढ़ावा श्वेत पद्म पर विराजमान सरस्वती को अर्पित होता है ताकि देश की
संतति परम्परा आम्र वृक्ष की शाखाओं की तरह अपने यश का चतुर्दिक विकास करे। यह काल
फाल्गुन और चैत का काल है। फाल्गुनी पूर्णिमा के दिन आनंद और उल्लास का महोत्सव
प्रेम - मिलन एवं विरोध - विस्मरण के मधुमय आमंत्रण का पर्याय पर्व होली के रूप
में मनाया जाता है। प्रकृति यूँ तो स्वयं में सर्वोच्च गुरु है
पर आनंद की स्रोतस्विनी सभी प्राणियों में कहाँ उमड़ती है ? भौतिकवादी युग में तो कदापि नहीं।
कुसंस्कारों के जीर्ण - शीर्ण पत्तों को त्याग कर ,नवीनता और प्रगतिशीलता के नव किसलयों व
पल्लवों से हम अपना श्रृंगार कर सकें तभी वसंत उत्सव बन कर आता रहेगा। फिर तो काल
चक्र भले वर्ष में एक बार इसका रसास्वादन कराये पर मानव का प्रयास इसके उदात्त गुणों को अपना कर आजीवन सौंदर्ययुक्त रहेगा।