इस ब्लॉग से मेरी अनुमति के बिना

कोई भी रचना कहीं पर भी प्रकाशित न करें।

Thursday, 12 December 2013

पैंतालीस का प्रेम

कई दिनों से देख रही थी कि सामने वाले मकान में सफाई हो रही थी। मेरी बालकोनी से सामने वाले फ्लैट के अन्दर तक दिखाई देता है अगर पर्दा ठीक से न लगा हो।फिर हफ्ते भर दीवाली  की साजो सफाई में इतनी  व्यस्त रही कि  सामने वाले फ्लैट में कोई आ भी गया यह तब पता चला जब एक दिन सवेरे कुकर की सीटी सुनाई दी। विनीत जब ऑफिस से आये तो मैंने पूछा ,"क्या आपको पता है हमारा नया पड़ोसी  कौन है ?" " मुझे क्या पता, वैसे टहलते समय किसी मिस्टर बनर्जी की बात कर रहे थे सभी। वह यहीं फारेस्ट ऑफिसर हैं। "विनीत ने एक संक्षिप्त परिचय दिया और फिर टी वी देखने में मशगुल हो गए। मैंने डिनर टेबल पर लगाते हुए कहा ,"कल थोड़ा जल्दी आना। दीवाली के पहले परदे खरीदने हैं।" "अरे अकेली चली जाओ न। मुझे यह शौपिंग -वोप्पिंग बड़ी बोरिंग लगती है।"विनीत बड़े ही शांत स्वभाव वाले इंसान हैं। उन्हें केवल ऑफिस के काम से ही मतलब होता है। विवाह के पच्चीस साल के दरम्यान उसने जितनी बार मेरे बनाये खाने और मेरी तारीफ़ की है ,उसे अँगुलियों पे गिना जा सकता है।कुछेक बार उसने मुझे गज़रा भी लाकर दिया है ,पर इसलिए कि मेरे जन्मदिन पर ऑफिस स्टाफ ने उन्हें समझाया था कि पत्नी के लिए कुछ लेकर जाना।
                             दूसरे  दिन शनिवार था। विनीत के जाने के बाद घंटी की आवाज़ सुनाई दी ,मुझे लगा हमेशा की तरह घड़ी छूट  गयी होगी। जैसे ही दरवाज़ा खोला  ,सामने एक ३० - ३२ साल का युवक खड़ा  था। हाथ में एक भगोना, जिसे देते हुए उसने कहा ,"मैं आशीष बनर्जी सामने वाली बिल्डिंग में शिफ्ट किया हूँ। मेरे फ्लैट में सभी कामकाजी हैं सो नौ बजते - बजते सभी निकल जाते हैं। शाम ४ बजे दूधवाला आएगा ,प्लीज आप यह भगोना रख लीजिये। दूध ले लीजियेगा। "मैंने उस समय ज्यादा कुछ नहीं पूछा। अब तो हर तीसरे - चौथे दिन यह सिलसिला सा हो गया। भगोना देने और लेने  के साथ - साथ दो - चार बातें खड़े - खड़े ही हो जाती थी ,मसलन "शर्ट अच्छा लग रहा है। आज क्या खाया कैंटीन में? वगैरह – वगैरह ।धीरे - धीरे बातों का दौर भी बढ़ने लगा। एक दिन शाम को ऑफिस से लौटने के बाद जब वह दूध का भगोना लेने आया ,मैंने उससे चाय पी कर जाने का अनुरोध किया ,चाय की तलब उसे भी थी। साथ ही बैचलर हूड से उकताहट भी होती होगी ,इसलिए वह सहर्ष अंदर आ गया।  बातों - बातों में उसने बताया कि वह गोरखपुर का रहने वाला है। तीन विवाहित बहनों और माता - पिता के साथ का एक मध्यमवर्गीय परिवार। उसके लिए भी विवाह हेतु रिश्ते देखे जा रहे हैं,पर उसने माँ - पिताजी के हाथों यह जिम्मेवारी दे रखी  है।           
 इसी बीच विनीत  भी ऑफिस से आ गए। नीला ने उसका परिचय कराते हुए कहा,"ये हैं बनर्जी साहेब" , "नहीं - नहीं आप मुझे केवल आशीष कहें ",आशीष ने झट सुधारा । फिर विनीत और आशीष के बीच लम्बी बात -चीत हुई,ऑफिस से लेकर शहर के मनोरंजन केन्द्रों तक। अधिकतर समय  आशीष के ही बोलने की आवाज़ आ रही थी।
                                                   एक दिन सवेरे जब आशीष दूध का भगोना देने आया ,तब वह नहा कर निकली थी। सफ़ेद साड़ी में गीले बालों के साथ जैसे ही उसकी नज़र पड़ी ,वह देखता ही रह गया। नीला ने जब भगोना उसके हाथ से लिया ,तब उसकी तन्द्रा टूटी। आशीष कह उठा ,"आप तो गुलाब पर पड़ी शबनम की मोती सी लग रहीं हैं। गज़ब की सुन्दर। "अपनी तारीफ़ सुने एक अरसा बीत गया था।पहले तो उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि अब भी उसकी सुन्दरता कायम है। दिन का खाना  बनाते समय पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं। स्कूल - कॉलेज में सखियाँ उससे यह कह कर जलतीं थीं ," तुम हमारे साथ मत चलो। ।सब   तुम्हे ही देखते हैं। हमारी तरफ तो कोई नहीं देखता। "फेयरवेल में उसे ही ब्यूटी क्वीन का खिताब मिला था। पर शादी के बाद विनीत की उदासीनता और गृहस्थी के भंवर में फंस कर रह गयी। आशीष के प्रशंसा भरे शब्द उसे जब न तब गुदगुदाते रहते। दूसरे  दिन रविवार होने के कारण आशीष नहीं आएगा ,उसे पता था। फिर भी किसी खटके से उसकी नज़र दरवाज़े की ओर  उठ जाती। सोमवार का तेज़ी से इंतज़ार होने लगा। उस दिन उसने जानबूझ कर दरवाज़ा खुला छोड़ा था। आशीष ने भगोना पकड़ाने  के साथ कहा ,"माँ कहती थी कि सुबह - सुबह सुन्दर चीज़ देखने से सारे दिन ताजगी बनी रहती है। माँ ने गलत नहीं कहा था। "नीला के  गालों में लालिमा छा  गयी। मुस्कुरा कर उसने उसे विदा किया।जाने क्या कशिश थी आशीष की आँखों में जो उसे बारम्बार अपनी ओर खींच रहीं थीं। उम्र के  पैंतालिसवें  पड़ाव पर यह क्या हो रहा है !किसी का इंतज़ार ,किसी के लिए बेचैनी ।ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ। विनीत के घर पर होने से एक तनाव सा महसूस होता। अकेलापन अच्छा लगता था। ऐसा नहीं था कि नीला में आया आकस्मिक बदलाव विनीत ने महसूस न किया हो। शाम के समय का उसका बनाव - श्रृंगार विशिष्ट हो गया था। पहले हर दो - एक दिन  पर विनीत से जिद करती थी कि घर के काम - काज  से वह थक जाती है ,बाहर जाकर सब्जी - राशन लाने का मन नहीं होता ,सो ऑफिस से आते समय वह लेते आया करे।विनित अपनी सफाई देता ,"मैं भी आठ घंटे कोई आराम फरमा  कर नहीं आ   रहा   हूँ ,तुम ही जा कर ले आओ ,वैसे भी दिन भर से घर में पड़ी हो। " लेकिन पिछले कई दिनों से ऐसी किच  - किच नहीं हो रही थी। विनीत को चाय सौंपने के बाद वह स्वयं ही झोला लेकर निकल पड़ती। कई बार विनीत  ने  उसे रसोई में काम करते - करते अपनेआप में मुस्कुराते भी देखा।एक दिन उसे टोहते हुए विनीत ने पूछा ,"आशीष को किसी दिन खाने पर  बुला लो ,आखिर अकेला प्राणी है। "किसी और के आने की बात रखने से भी वह कभी इनकार नहीं करती थी पर कुछ कड़वा ज़रूर सुना  देती,"हाँ  नौकरानी जो ठहरी ,मुफ्त में खिलाते रहो। "पर इस बार सहर्ष स्वीकार कर लिया। डिनर टेबल सजा कर वह खुद भी अच्छी  साड़ी पहन कर ,बालों में गजरा लगा कर तैयार हो गयी। आशीष बहुत खुले दिल से विनीत के स्वभाव और नीला के बनाये  खाने की तारीफ़ करता रहा। जाते - जाते आशीष ने विनीत को धन्यवाद के साथ एक कमेंट भी दिया ,"आप बड़े भाग्यशाली हैं जो नीला जी जैसी पत्नी मिली। मैंने गाँव में खबर भेज दिया है कि इनके जैसी रूपवान  और दक्ष लड़की से ही विवाह करूंगा। "नीला सकपका गयी।रात को इस पूरे घटनाक्रम पर दोनों देर तक बातें करते रहे। विनीत चुटकी लेता रहा ," आशीष तो तुम्हारा दीवाना हो गया है। "हमेशा काम के बोझ तले  मुरझाया नीला का  चेहरा अब खिल रहा था। विनीत को उसकी चुप्पी खलती। वह चाहता था वह पहले की तरह उससे लड़े  - झगड़े ,पर नीला एक नए जोश में सारे काम निबटाती। अगले रविवार को आशीष के आने का कोई सवाल नहीं उठता था क्योंकि उसकी छुट्टी होती थी। करीबन साढ़े  दस बजे कॉल बेल बजी। दरवाज़े पर आशीष खडा था। उसके हाथ में एक शादी का कार्ड भी। अभिवादन का स्वर सुनकर नीला चहकते हुए बाहर आयी ,"अरे !आज कैसे ?"आशीष ने शादी का कार्ड उसकी और बढाते हुए कहा ,"अगले महीने की बीस तारीख को मेरी शादी तय हुई है। आप दोनों को गोरखपुर आना होगा। माता - पिता को पता था कि  उनकी पसंद ही मेरी पसंद है ,इसलिए   केवल तारीख  की  सूचना  दे दी। "नीला का चेहरा एक बारगी उदास  हो गया ,फिर तुरंत सँभालते हुए उसने उसे बधाई दी।

                                         इस घटना के बाद दो दिन यूँ ही बीत गए। तीसरे दिन अचानक विनीत ने ऑफिस से आते समय एक गजरा खरीद लिया। शाम के छह बजे थे ।नीला अपने कमरे की साज़ - सफाई  में लगी  थी। पिछले कई  शामों की तरह बहुत उत्साहित नहीं। अचानक विनीत ने उसे पीछे से आकार थाम लिया और कहा ,"चलो ,तैयार हो जाओ ,आज बाहर चलते हैं। दिन भर काम में लगी रहती हो। "इस अप्रत्याशित प्यार भरे हमले को तो वह जाने कब से भूल चुकी थी। विवाह के आरंभिक सालों में विनीत शायद ही खाली हाथ घर आता। कई बार तो उसकी सुन्दरता पर कुछ पंक्तियाँ गा देता। इस प्यार से अभिभूत वह जल्दी ही तैयार हो गयी। आईने के सामने एक बड़ी बिंदी लगाते समय विनीत ने पीछे से उसके  बालों  में  गजरा टांक दियाऔर फिर बाँहों  में भर कर कहा ,"वाह !क्या लग रही हो। ज़न्नत की हूर कहूँ या आँखों की नूर। "शायरी अभी और होती कि नीला ने उसके होंठों पर अँगुली रखते हुए कहा ,"अब ,चलो भी। "दीवाली की खरीदारी दोनों ने साथ- साथ करने की ठानी। विनीत के इस  परिवर्तित व्यवहार पर नीला सोचती कि आशीष का उसके मोहल्ले में आना उसके जीवन में बहार लाने के लिए ही था। ऐसा बहार जो  अब कभी   पतझड़ नहीं झेलेगा ,आखिर एक - दूसरे  में  आकर्षण खोजने का मूलमंत्र आशीष ने दे दिया था।

3 comments:

  1. सुन्दर कहानी । प्रेम तो मन की भावना है , वह किसी भी उम्र में हो सकता है ।

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (13-12-13) को "मजबूरी गाती है" (चर्चा मंच : अंक-1460) पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  3. यह कहानी "मेरी सजनी "मासिक पत्रिका के दिसंबर २०१३ अंक में छप चुकी है।

    ReplyDelete