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Friday, 6 June 2014

याद आते हैं
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साल दर साल बीत गए 
घर - आँगन सब छूट गए
 राग नए ,रंग नए 
नव परिवेश में ढल गए। 

याद आते हैं मस्ती के मेले 
ताल - तलैया औ' सावन के झूले 
कच्ची उम्र की पक्की कसमें न भूले 
खट्टे - मीठे वो शिकवे - गिले। 

हाथ बढ़े जब आसमां छूने 

मन में उत्साह भरे दूने 
सूरज की तपिश तब जाना मैंने 
तेवर हवा का पहचाना मैंने। 

अपना नहीं है कुछ भी यहां 

तेरे - मेरे में बंटा है जहां 
रुत शहर की कभी भाई कहाँ 
न शीतल छाँव न परिंदे जहाँ। 

आँगन में उतरती धूप न भूले 

बूँदों की थाप पर नर्तन न भूले 
जार - जार रोए थे मिल कर गले 
आज के बिछुड़े जाने कब मिले। 

अब तो हम प्रवासी पंछी भए 

मौसम संग भी लौट न पाए 
सुख के भंवर में उलझते जाएँ 
बरसाती यादों में बस बह जाएँ।