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Tuesday, 3 March 2015

बिन तुम
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जीवन के सब रस सूख चुके हैं
जब से मीत हमारे रूठ उठे हैं।
खिलता नहीं मधुवन वसंत में
अमराई की छाँह है  वीरानी
ताल - तटिनी के तीर में
ढूंढता हूँ उसकी निशानी
सब जतन करके हारे
अनसुनी रह गयी कहानी
गुज़श्ता कल आँखों में भर
दिन पहाड़ से बीत रहे हैं।
मन पखेरू बिन ठौर का
उजड़ गया ज्यों रैन - बसेरा
भूल कर मनहर जीवन संगीत
भटक रहा साँझ - सवेरा
पूनम की रात आती - जाती
छँटता नहीं पर मन का अँधेरा
निष्पंद ,निरर्थक सी यह काया
 जाने क्यूँ हम जी रहे हैं !

1 comment:

  1. सुन्दर भावयुक्त अभिव्यक्ति... लिखते रहिये

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