यशोधरा
का आर्तनाद
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जो
तुम कह देते एक बार
जाओगे सत्य की खोज में
करने विश्व का
त्राण
भर बाँहों का आलंगन
ललाट पर टीका और चुम्बन
विदा कर देती नाथ
पर तुम पलायन कर गए
छोड़ सोता ,रात के अँधेरे
में
तुम्हे डर था
कि मेरे आंसुओं का
सैलाब
तुम्हे कमज़ोर
न कर दे
अपनेआप
पर भरोसा न करने वाले
युग - प्रणेता ,शांति - दूत और
विश्व के अधिष्ठाता
मेरे
लिए तो तुम केवल सिद्धार्थ हो
जिसने मुझे राजरानी बनाया
मातृत्व के
सुख का अहसास कराया।
तथागत , तुमने कहा था
आनंद लेने में नहीं देने में है
मुझे जोगन
बना कर ,बिरह अगन में
झोंक कर
तुम्हे कौन सा आनंद मिला ,ज़रा
बताओ।
तुमने कहा ,इच्छाएं दुःख का
कारण हैं
भला त्यक्त स्त्री की भी कोई
इच्छा होती है ?
उपालम्भों की पीड़ा , एकाकी और
उदासियों का दंश
जो मैंने झेला ,काश तुमने भी
झेला होता
रोग ,जरा
और मृत्यु ने यक़ीनन तुम्हे विचलित किया
पर एक
सत्य यह भी है कि
मेरे अनंत प्रेम के मकड़ - जाल में
तुम्हे मुझे खोने का डर बार - बार सालता था।
शायद
इसलिए तुम शाश्वत प्रेम की
खोज में निकल गए ।
विडंबना
तो देखो मैंने सर्वस्व न्योछावर कर
दिया
जिस पर,
उसने अपनी जर्जर अवस्था में
पर स्त्री के हाथों खीर खा कर नवजीवन पाया
क्या मेरा
अर्धांगिनी होना तुम्हे रास नहीं आया था ?
मेरा आर्तनाद तुम तक कैसे न पहुंचा ,प्रिय
?
मैंने ज़ज़्ब कर लिया अंतर की ज्वाला
बहा दिया अंदर ही लावा
और पाषाण हो गयी।
तुम्हारे लिए सब क्षम्य था क्योंकि तुम पुरुष
थे।
और ,अब तो ज्ञान बांटने वाले गुरु।
मैंने भी निर्वाण पाया है ,बिना
वनवास के
उत्तरदायित्व के बोझ तले,पर मैं बुद्ध
नहीं कहलाई
क्योंकि यशोधराएं कभी बुद्ध नहीं बनतीं
वे बुद्ध बनाती हैं।
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