काल से परे
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प्राची की लाली,मेरी पेशानी से होते
गालों को चूमते ,गर्दन तक उतर जाती है
मैं उस स्निग्ध लालिमा की
रक्तिम आभ में अक्षय ऊर्जा से
भर जाती हूँ और महसूस करती हूँ
एक गर्मी ,एक अंतश्चेतना।
डूब जाना चाहती हूँ मैं
उस गर्म अहसास में जो
हमारे प्यार सा अलौकिक होता है ।
तुम भी तो क्षितिज के सूरज हो
पिघला देते हो मेरे अंदर का बर्फ
अपने दहकते अधरों के स्पर्श से।
मेरे कानों में बेशुमार हिदायतों की
फेहरिस्त सुनाते हुए तुम्हारा मुझे
अपने पास खींच कर लाना
ऐसा ही है जैसे पवन का एक झोंका
लरकती - लरजती लताओं को
अपनी मर्ज़ी से खींच लेता है।
तुम वही पवन हो प्रिय
जो आँधी बन कर मुझे
तहस -नहस कर देते हो और
मैं उफ़ भी नहीं करती।
यही प्यार है न, जिसमे जीने - मरने की
कोई हद नहीं होती।
मैं बरसात की उफनती नदी
लहराती - बलखाती चल पड़ती हूँ उस
महासागर की ओर जिसमे हो एकाकार
मिटा देती हूँ देह की सीमाएँ ।
इसे प्यार की अंतिम परिणति न समझना
मैं काल से परे, वाष्प बन कर कभी
पवन संग मिल जाऊँगी ,कभी नमी बन
सूरज के आस - पास बिछ जाऊँगी।
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प्राची की लाली,मेरी पेशानी से होते
गालों को चूमते ,गर्दन तक उतर जाती है
मैं उस स्निग्ध लालिमा की
रक्तिम आभ में अक्षय ऊर्जा से
भर जाती हूँ और महसूस करती हूँ
एक गर्मी ,एक अंतश्चेतना।
डूब जाना चाहती हूँ मैं
उस गर्म अहसास में जो
हमारे प्यार सा अलौकिक होता है ।
तुम भी तो क्षितिज के सूरज हो
पिघला देते हो मेरे अंदर का बर्फ
अपने दहकते अधरों के स्पर्श से।
मेरे कानों में बेशुमार हिदायतों की
फेहरिस्त सुनाते हुए तुम्हारा मुझे
अपने पास खींच कर लाना
ऐसा ही है जैसे पवन का एक झोंका
लरकती - लरजती लताओं को
अपनी मर्ज़ी से खींच लेता है।
तुम वही पवन हो प्रिय
जो आँधी बन कर मुझे
तहस -नहस कर देते हो और
मैं उफ़ भी नहीं करती।
यही प्यार है न, जिसमे जीने - मरने की
कोई हद नहीं होती।
मैं बरसात की उफनती नदी
लहराती - बलखाती चल पड़ती हूँ उस
महासागर की ओर जिसमे हो एकाकार
मिटा देती हूँ देह की सीमाएँ ।
इसे प्यार की अंतिम परिणति न समझना
मैं काल से परे, वाष्प बन कर कभी
पवन संग मिल जाऊँगी ,कभी नमी बन
सूरज के आस - पास बिछ जाऊँगी।
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