बरगद की छांव में
बचपन के गलियारे में
यादों का काफ़िला गुजरता है
दो बलिष्ठ बाँहों का सहारा
पल भर में कौंध जाता है
बालों को सहलाती अंगुलियाँ
मीठी नींद सुलाती थीं
तारों तक पहुँचने की ज़िद
जाने कैसे पूरी हो जाती थी
चाह नहीं था कोई ,आस नहीं
पिता के सान्निध्य में स्वर्ग था
सपने नहीं थे ,उम्मीदें नहीं
बरबस मिला प्यार ही संसार था
और चाहिए भी भला क्या था ?
मेरी रूदन में भूख का अंदेशा
मेरी ख़ामोशी में अनकही पीड़ा
मिल जाता
था उन्हें सब संदेशा
अभिलाषाएँ पनपीं जब वयः में
गुरु ज्ञान सा पथ सुगम बनाया
सही - गलत को तौल कर तुला में
जग की रीत बखूबी समझाया
बचपन घुला समय की धार में
जिम्मेदारियां जब सर चढ़ती हैं
एक अज्ञात शक्ति उनके निवारण को
बा 'के स्मरण मात्र से आ जाती है ।
खँडहर देख महल की भव्यता का
जैसे पता खुद - ब- खुद लगता है
झुर्रियों से ढँकी खोखली परतों में
वैसे बीता दर्प चमकता है ।
जी चाहता है, भूल कर भाग -दौड़
कुछ सुस्ता लूँ बरगद की छांव में
काँपते हाथों से गिरता आशीष
पहन लूँ समेट कर तावीज में ।
बरगद की छांव भी हमेशा कहाँ मिलती है ..... बहुत सुंदर रचना
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