आलेख
मुक्तिबोध
कल्पना कीजिये एक पिंजरे में बंद पक्षी ...पंख
फड़फड़ा कर अपनी वेदना ज़ाहिर करते - करते या तो लहूलुहान हो जाता है या फिर थक कर
सो जाता है ।कमोबेश यही स्थिति औरतों की
भी है ।पंख है ,परवाज़ नहीं। आदिकाल की देवी ,मध्य
काल की योग्य स्त्री ,भक्ति काल में माया बन गयी और आज का बाजारवाद
उसे वस्तु में बदल दिया। परिवर्तन का आयाम
सबसे ज्यादा महिलाओं में ही दिखा ।कभी उसके अक्षर ज्ञान को मुक्ति का साधन माना
गया तो कभी पूरी तरह साक्षर होकर आत्मनिर्भर होने को। आज औरतें बहुत हद तक आत्मनिर्भर
हैं पर हर आत्मनिर्भर औरत सुखी नहीं ।ममता ,कोमलता जैसे
स्वाभाविक गुणों की तिलांजलि देकर पुरुषों से कन्धा मिला कर चलने वाली स्त्रियाँ
संतुष्ट भी नही हैं। सुख को उसने खरीद लिया पर सुख को महसूस नही किया ।आधुनिकता की
आड़ में औरतों की नई भूमिकाएं उन्हें एक जाल में फांस लेती है ।एक निश्चित दायरे में
रह कर आत्मविश्वास से लबरेज अपनी जिम्मेदारी निभाना और बात है ।यह स्वतंत्रता
प्रगति का सूचक नहीं है ।पितृसत्ता आज भी है भले ही स्त्री - पुरुष के संबंधों में
खुलापन और नजदीकियाँ बढ़ी हैं ।यह बदलाव आर्थिक दृष्टिकोण से मज़बूत हुआ है न कि
सामाजिक दृष्टिकोण से ।समाज तो इसे
मजबूरीवश स्वीकारता गया ।जहां परिवार का
स्टेटस बढ़ा है वहीँ आपसी विश्वास की लौ
बुझने लगी है। आधुनिकता का लिबास ओढ़े पुरुष आज भी अपनी पत्नी के सहकर्मी पुरुष के
एक फ़ोन पर चिल्लाने लगता है और आवश्यकता वश अगर वह अपने पुरुष मित्र के बाइक पर
बैठ गयी तो एक बवंडर खड़ा कर देता है। वर्षों का साथ विश्वास के रेतीले आधार पर खड़ा
भरभरा जाता है ।इसलिए शादी अपना आकर्षण खोकर कहीं न कहीं एक समझौता बन कर
रह गया है ।
प्रेम और विश्वास के साथ आगे बढती स्त्रियों को
पुरुषों का अपेक्षित सहयोग मिलता रहे तो इस बदलाव और स्त्री - पुरुष के संबंधों
में हो रहे बदलाव को अपनाना सहज हो जाएगा ।इंसानों में मुक्तिबोध ज्यादा पनपता है
।समाज के सही संचालन के लिए नियम अपेक्षित हैं लेकिन किसी एक को बंधन में इतना
जकड़ दिया जाए कि वह छटपटा उठे तो फिर मुक्ति की भावना विद्रोह का स्वर अख्तियार
कर लेती है ।
जब से
स्त्रियाँ अपने अधिकारों के प्रति सजग हुईं तब से समाज में एक नई बहस छिड़ी जो कभी
स्त्री - समानता ,कभी स्त्री - जागरण तो कभी स्त्री - विमर्श के
रूप में निरंतरता बनाये हुए है ।यह बहस पश्चिम के व्यापारवादी तर्क से पैदा होते
हैं और विकासशील देशों पर थोप दिए जाते हैं ।भारत में कामसूत्र और मनु संहिता जैसी
रचनाओं में कभी स्त्री का चरित्र - हनन
नहीं किया गया जैसा कि पश्चिम में लिखे सेक्स - साहित्य में उधेड़ा गया। वहाँ माँ
के संस्कारवादी चरित्रों से हटकर महज एक
भोग्या मान कर लिखा गया। स्त्री विमर्श ने
स्त्री के मुक्ति संघर्ष को धार प्रदान की है। यदि यह विमर्श किसी एक वर्ग की
श्रेष्ठता का हिमायती न हो ,दोनों की समानता का हिमायत करता हो ,तभी
एक सह - अस्तित्व परक समाज की स्थापना होगी। स्वतंत्र विचार ,स्वतंत्र
प्रतिक्रिया और स्वतंत्र हस्तक्षेप मुक्ति की पहली शर्त है ।उच्च और निम्न वर्ग के
लिए यह इतना पेचीदा नहीं है जितना मध्य वर्ग
की स्त्रियों के लिए ,क्योंकि
यही वर्ग शिक्षा के क्षेत्र में आगे है।
यही वर्ग महत्त्वाकांक्षी और जागरूक है तथा इसे ही औरों से अधिक प्रतिरोधों
का सामना करना पड़ता है ।साहित्य समाज का दर्पण है। आलोचक चाहे जो बोलें पर एक ऐसी
स्त्री जिसके लिए देह उसकी पूँजी ,पहचान और जीने का आधार है ,वह
पूर्णतः स्वतंत्र है ।वह सक्षम ,आत्माभिमानी और अपराधबोध से मुक्त है
।वह सामजिक और आर्थिक रूप से स्वतंत्र है और नैतिकता के परंपरागत मानदंडों को तोड़ती
हुई एक नए समाज की संरचना में व्यस्त है ।समय आ गया है कि ज्ञान की पराकाष्ठा को
समझते हुए लिंग आधारगत भेदभावों को हटाकर एक शिक्षित समाज की बुनियाद पर ध्यान
दिया जाए जो स्त्रियों के मुक्तिबोध का सूचक होगा ।
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