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Tuesday, 4 June 2013

  मानव - चित्र 

इन ईंट के पक्के मकानों में 
दरीचों से झाँकती धूप
स्वर्ण उजालों सी करती हैं जगमग 
मलमली गलीचों में 
दूब सी नर्माहट
बेहद भली लगतीं हैं ।
 विशाल फूलदानों में 
रंग - बिरंगे फूल 
नैसर्गिक छटा बिखेरते हैं ।
दीवारों के खूबसूरत कैनवस 
पर अपनों के चित्र 
आत्मीय अहसास देते हैं ।
सब कुछ तो है इस पुख्ता मकान में 
कुछ नहीं है तो बस 
उन रिश्तों की गर्माहट जो 
एक चित्र  में क़ैद हो रह गयी है ।
भरे - पूरे घर में हर कोई 
एकाकी जीवन जी रहा है 
एक - दूसरे से बेखबर 
अपने ही बुने जाल में फंसा 
अनजाना सा गिरह काटता हुआ ।
दीवारों की कलात्मकता में सुशोभित है 
आंसू  बहाता एक मानव - चित्र 
लोग कहते हैं कि यह पेंटिंग 
इस घर की शोभा बढ़ा देता है 
वह इसलिए कि वास्तविकता 
सदैव सराही जाती है ।
घर की बेजुबां होती 
भावहीन रिश्तों की कहानी 
यही दर्शाता है 
बाकी सब बेमाने हैं 
 खोखले हैं ।

1 comment:

  1. वाह .लाजवाब कविता. धन्यवाद
    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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