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Tuesday, 25 June 2013

मृगतृष्णा 

अनंत मुरादों से भरी झोली 
कंधे पे लटकाए घूमता है वह 
इसके वजन से थकता - हाँफता
बेहाल परेशान हो जाता है 
हर मुराद में निहित खुशियाँ 
कभी छलक जातीं कभी झलक जातीं 
अक्षय होतीं  हैं ये ईप्साएँ
एक पूर्ण हुई  नहीं कि
कई और जनम जातीं  हैं ।
इन्हीं ईप्साओं के इर्द - गिर्द 
घुमती है दिनचर्या अहर्निश 
इनसे भरता उसके सुख का पैमाना 
यही देता उसकी सफलता का आँकड़ा।
अनेक बार तो इच्छाएँ 
पीढ़ी दर पीढ़ी ढोई जातीं हैं 
कभी परदादाओं के हेतु 
कभी भावी संतानों के हेतु ।
क्या ही अच्छा होता 
उतना ही पसारता पैर वह 
जितनी लम्बी चादर होती !
चाहतों की मृगतृष्णा में 
वह दौड़ता रहता है 
क्योंकि उसे पता नहीं कि
जीवन सुगन्धित करने वाली 
संतोष की कस्तूरी तो 
उसके जेहन में  ही है ।

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