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Friday, 4 July 2014

  कभी फुर्सत में आना 
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  कभी फुर्सत में आना
मंदिर के चौबारे में बैठ 
अपनी- अपनी ज़िन्दगी बतियाएंगे 
छोटी - छोटी खुशियाँ बाँटेंगे
अपने वर्तमान की खूबियाँ  
बार - बार जतलाएँगे
जैसे ही तुम अतीत कुरेदोगे कि
इस खम्बे के पीछे की 
लुका - छिपी याद है ?
मैं विषय - वस्तु बदल कर 
शब्दों के जाल में तुम्हें फांस लूँगी
कहीं वो बीता पल 
मेरे वर्तमान पर हावी न हो जाए 
और ,जब उठने की बारी आएगी 
तब एक नहीं ,अनेक  बार दुहराएंगे 
"अच्छा ,अब चलते हैं "
पता नहीं कौन किससे इज़ाज़त
 माँगता है ?
फिर ,एक गहरी चुप्पी के साथ 
अपनी - अपनी राह पे चल पड़ेंगे 
एक अनकहा संवाद आँखों में लिए 
बार - बार मुड़कर देखेंगे 
यह अहसास देते हुए कि
तुम अब भी याद आते हो 
मेरा अतीत ,मेरे पास ठहरा हुआ है। 

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (06-07-2014) को "मैं भी जागा, तुम भी जागो" {चर्चामंच - 1666} पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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