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Monday, 4 August 2014

बरसा दो सावन
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कुछ रंग बरसा दो सावन
खिल उठे फुनगी - फुनगी मनभावन
जरा देखा है विस्तृत शाखों ने
सुख की गति खो कर अगन में
विलग हुए थे पात - पात
होकर रुग्ण जीवन समर में
कुछ अमृत बरसा दो सावन
जी उठे मरणासन्न से कानन।
कैसे भूलूँ वह उत्ताप काल
अंजुरी भर के सूरज का
फट - फट कर धरती रोई थी
कहर बरपा था प्रचंड समीर का
कुछ बूँदें बरसा दो सावन
भर जाए धरती का  दामन।
वन - प्रांतर है जीवन - गाथा
हर्ष - विषाद का आना और जाना
ठूंठ खड़ा रहा जो निर्भीक ,निडर
कुसुमाकर का सुख उसने ही जाना
कुछ सुध बरसा दो सावन
आनंद ,उमंग हो सर्वत्र पावन।

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