इस ब्लॉग से मेरी अनुमति के बिना

कोई भी रचना कहीं पर भी प्रकाशित न करें।

Tuesday 25 June 2013

मृगतृष्णा 

अनंत मुरादों से भरी झोली 
कंधे पे लटकाए घूमता है वह 
इसके वजन से थकता - हाँफता
बेहाल परेशान हो जाता है 
हर मुराद में निहित खुशियाँ 
कभी छलक जातीं कभी झलक जातीं 
अक्षय होतीं  हैं ये ईप्साएँ
एक पूर्ण हुई  नहीं कि
कई और जनम जातीं  हैं ।
इन्हीं ईप्साओं के इर्द - गिर्द 
घुमती है दिनचर्या अहर्निश 
इनसे भरता उसके सुख का पैमाना 
यही देता उसकी सफलता का आँकड़ा।
अनेक बार तो इच्छाएँ 
पीढ़ी दर पीढ़ी ढोई जातीं हैं 
कभी परदादाओं के हेतु 
कभी भावी संतानों के हेतु ।
क्या ही अच्छा होता 
उतना ही पसारता पैर वह 
जितनी लम्बी चादर होती !
चाहतों की मृगतृष्णा में 
वह दौड़ता रहता है 
क्योंकि उसे पता नहीं कि
जीवन सुगन्धित करने वाली 
संतोष की कस्तूरी तो 
उसके जेहन में  ही है ।

Tuesday 4 June 2013

  मानव - चित्र 

इन ईंट के पक्के मकानों में 
दरीचों से झाँकती धूप
स्वर्ण उजालों सी करती हैं जगमग 
मलमली गलीचों में 
दूब सी नर्माहट
बेहद भली लगतीं हैं ।
 विशाल फूलदानों में 
रंग - बिरंगे फूल 
नैसर्गिक छटा बिखेरते हैं ।
दीवारों के खूबसूरत कैनवस 
पर अपनों के चित्र 
आत्मीय अहसास देते हैं ।
सब कुछ तो है इस पुख्ता मकान में 
कुछ नहीं है तो बस 
उन रिश्तों की गर्माहट जो 
एक चित्र  में क़ैद हो रह गयी है ।
भरे - पूरे घर में हर कोई 
एकाकी जीवन जी रहा है 
एक - दूसरे से बेखबर 
अपने ही बुने जाल में फंसा 
अनजाना सा गिरह काटता हुआ ।
दीवारों की कलात्मकता में सुशोभित है 
आंसू  बहाता एक मानव - चित्र 
लोग कहते हैं कि यह पेंटिंग 
इस घर की शोभा बढ़ा देता है 
वह इसलिए कि वास्तविकता 
सदैव सराही जाती है ।
घर की बेजुबां होती 
भावहीन रिश्तों की कहानी 
यही दर्शाता है 
बाकी सब बेमाने हैं 
 खोखले हैं ।