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Friday 29 November 2013

आत्मसंयम यानि  मन पर विजय

भौतिकवादी समाज की  कुरीतियों में काम ,क्रोध ,लोभ, मोह ,अहंकार आदि मनोविकार मनुष्य के मन पर अधिकार बनाए हुए हैं और अवसर पाते ही अपना दुष्प्रभाव दिखाने लगते हैं। बड़े से बड़े महात्मा हों या उच्चाधिकारी ,आत्म संयम के अभाव में अपनी प्रतिष्ठा खो बैठते हैं।  ये नदी के प्रभाव  की  भांति बहते हुए मनुष्य - जीवन में अनेक बाधाएँ डाल  कर उसे मलिन और निराशपूर्ण बना देते हैं। इनकी प्रतिद्वंद्विता में आत्मसंयम का  सहारा ले लिया जाए तो मनुष्य जीवन की  सफलता में संदेह नहीं रहता। इन पर काबू पाना या अपने को वश में करना ,जगत को जीत लेना है। साधारण मनुष्य की  तो बात ही क्या ,बड़े - बड़े सम्राट भी काम के अधीन हो आत्म - संयम की तिलांजलि दे डालते हैं और कठिनाइयों की  कीच में अवश्यमेव  फंस  जाते हैं। इतिहास प्रमाण है कि गांधीजी ने क्रोध पर नियंत्रण कर के प्रेम और अहिंसा के अस्त्रों द्वारा अंग्रेजी साम्राज्य का अंत किया। बुद्ध ने राजसी वैभव के मोह और लालच को त्यागा तभी वे सत्य की  साधना कर सके। कहाँ   तो  एक साधारण सी जागीर और कहाँ उसके स्थान पर इतना बड़ा महाराष्ट्र प्रदेश !कहाँ थोड़े से मावली और कहाँ बीजापुर के सुलतान का असंख्य दल - बल ,अफ़ज़ल खान और शाइस्ता खान जैसे दुर्दम्य सेनापतियों का सामना करना कोई हँसी  - खेल था। पर वीरवर शिवाजी ने असफलता का कभी नाम भी नहीं सुना क्योंकि उनमे आत्मसंयम कूट - कूट कर भरा हुआ था।
                 

                                         जो व्यक्ति इंद्रियों के दास होते हैं ,वे इंद्रियों की  इच्छा - शक्ति पर नाचते हैं। संयमहीन पुरुष सदा उत्साह- शून्य ,अधीर और अविवेकी होते हैं ,इसलिए उन्हें क्षणिक सफलता भले मिल जाए ,अंततः उन्हें बदनामी और पराजय ही मिलते हैं। आत्मसंयमी व्यक्तियों में सर्वदा उत्साह ,धैर्य और विवेक रहता है जो उनकी सफलता की  राह तय करते हैं। मानव की  सबसे बड़ी शक्ति मन है इसलिए वह मनुज है। प्रकृति के शेष प्राणियों में मन नहीं होता ,अतः उनमे संकल्प - विकल्प भी नहीं होता। मन की  शक्ति अभ्यास है ,विश्राम नहीं। इसलिए तो मन मनुष्य को सदा किसी न किसी कर्म में रत रखता है। आत्म - संयम को ही मन  की  विजय कहा गया है। गीता में मन - विजय के दो उपाय बताये गए हैं-- अभ्यास और वैराग्य। यदि व्यक्ति प्रतिदिन त्याग या मोह - मुक्ति का अभ्यास करता रहे तो उसके जीवन में असीम बल आ सकता है। यह कुछ महीने की  देन  नहीं होती है,एक लम्बे समय की  ज़रुरत है। फिर तो दुनिया उसकी मुट्ठी में होगी। एक बार मोह - माया से विरक्त हो जाओ तो वैराग्य मिल जाएगा। भारत में आक्रमण कारी शताब्दियों तक लड़ाई जीत कर भी भारत को अपना नहीं सके क्योंकि उनके पास नैतिक बल नहीं था। शरीर के बल पर हारा  शत्रु  बार - बार आक्रमण करने को उद्धत होता है परन्तु मानसिक बल से परास्त शत्रु स्वयं - इच्छा से चरणों में गिर पड़ता  है। इसलिए तो हम प्रार्थना करते हैं - "हमको मन की  शक्ति देना ,मन विजय करें ,दूसरों की  जय से पहले खुद को जय करें। "

Tuesday 19 November 2013

  क्या सचमुच बीता
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 बीत   गया जो कल 

अतीत का बन पल 
सचमुच बीता ,या है छल 
बताओ, इस पहेली का हल। 

मिलन देहरी पर नैन बिछाए 

आते हैं सावन ,वसंत कुम्हलाए 
नूतन सम्बन्धों का आवरण चढ़ाए 
बिसर रहे हैं पुरातन के साए। 

यंत्रवत सी जीवन की  गति 

स्वकृत बाड़  में विचरता मति 
तृषा - जाल है भरमाता अति 
हर पराजय में जीवन की इति। 

समय का फेर बेशक भारी  पड़ता 

फिर भी वर्षों से मन रीता लगता 
हवाओं संग जब कचनार महकता 
अधरों पर मुस्कान थिरकता 

मुस्कान यह अनायास क्यूँ उभरता 

बेमौसम मेघ का एक टुकड़ा उतरता 
और आँखों  में क्यूँ है छा जाता 
जब सब कुछ है बीता ?

इक  बूँद स्वाति का बन 

इक वारिद तृप्ति का बन 
इक विभास आस का बन 
इक ज्योत अमावस का बन

उर  के स्पंदन  में अतीत बसता 
कभी हर्ष , कभी अश्क बनता 
कभी दर्द, कभी दवा बनता 
बीता ,फिर क्या सचमुच बीता ?

Thursday 7 November 2013

हे अंशुमाली
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युग आते,युग भरमाते
निरंतर होने का
होकर मिट जाने का ।
पीढ़ियों के उद्भव - अंत का
सभ्यताओं के उत्थान - पतन का
तुम एकमात्र गवाह हो।
मेघों के बनने  का
नदियों के बहने का
फसलों के पकने का
तुम एकमात्र आधार हो।
या यूँ कहें  कि
जीवन के फलने का
साँसों के चलने का
तुम एकमात्र पर्याय हो।
हे दिवसपति ,होते दीप्तमान जब
खिल उठते हैं सुमन मधुर
उड़ जाते पंछी सुदूर
छोड़ मर्त्यमान निशा का दामन
चहक जाते गाँव और कानन
घूमती रहेगी जब तक
धुरी पर पृथ्वी
तुम भी दिखोगे अनवरत
कभी इस पार
कभी उस पार
इधर गति का प्रणेता बनकर
उधर विश्राम का प्रतीक बनकर
हे अंशुमाली
सृष्टि का उद्गम  हो तुम
विनाश का मूल हो तुम
चराचर जगत के
तुम एकमात्र उपदेशक हो।