इस ब्लॉग से मेरी अनुमति के बिना

कोई भी रचना कहीं पर भी प्रकाशित न करें।

Thursday 3 December 2015

क्या शुबहा  क्या संशय
----------------------------------------


बरस रही हैं आँखें आज
क्या सावन क्या भादो आज।
टूट रहा यादों का सैलाब
कसमें और वादों का मेहराब
छूटे सो ,जुड़ कर भी जुड़े नहीं
इस शाम का हुआ सवेरा नहींशूभा
भर गया मन ,रीता चितवन
क्या उल्लास ,क्या उन्माद आज ।
गाता नहीं वसंत भी गीत अब
उर – वीणा में सजते नहीं संगीत अब
इक तुम्हारे मिलन की आस में
बाँधा है धड़कनों को सांस में
ढलते नहीं गीतों में शब्द प्रिय
क्या राग ,क्या विराग आज ।
टूटा नहीं है हमारा मन – अनुबंध
मौसमों संग आती है पहचानी सी गंध
यही यथार्थ है थामे जीवन की डोर
हम हैं बसे तुम्हारे नयनों की कोर
भाव छटा कभी बिखरा देते,फिर
क्या शुबहा ,क्या संशय आज । 

Saturday 7 November 2015

सुख
-------------
संशय नहीं इसमें कि
हमने जो माँगा सो पाया
सुख के हर मोती को
धागे में पिरोकर पहन लिया।
पर बदले में वह सब खोया
जिसके लिए सुख चाहा
मसलन ,चेहरे की मासूमियत
दिल की सच्चाई
स्वभाव की मिठास
 आँख का पानी और होठों की मुस्कान।
-------------------------------------------------

---------------
ख़ुशी
---------------
वह ख़ुशी जो अनायास मिल जाती है
कभी रहगुज़र में
दिल में उतर जाती है
आजीवन याद रह जातीं हैं।
 पर मिलती कहाँ वो नैसर्गिक खुशियाँ
हम तो उन क्षणिक खुशियों के गुलाम हैं
जो मिलती हैं शर्त में ,
सौगात में और सौदे में। -....copyright @kv
----------------------------------------------------------------

Saturday 26 September 2015

यशोधरा  का आर्तनाद
-------------------------------
जो  तुम  कह देते एक बार
जाओगे सत्य की खोज  में 
करने विश्व का  त्राण
भर बाँहों का आलंगन
ललाट पर टीका और चुम्बन
विदा कर देती नाथ
पर तुम पलायन कर गए
छोड़ सोता ,रात के अँधेरे में
तुम्हे डर था  कि मेरे  आंसुओं  का  सैलाब
तुम्हे कमज़ोर  न  कर  दे
 अपनेआप पर भरोसा न करने वाले
युग - प्रणेता ,शांति - दूत और विश्व के अधिष्ठाता
मेरे  लिए  तो  तुम केवल सिद्धार्थ हो
जिसने मुझे राजरानी बनाया
मातृत्व के  सुख का अहसास कराया।
तथागत , तुमने कहा  था
आनंद लेने में नहीं देने में है
मुझे जोगन  बना  कर ,बिरह अगन में झोंक कर
तुम्हे कौन सा आनंद मिला ,ज़रा बताओ।
तुमने कहा ,इच्छाएं दुःख का कारण हैं
भला त्यक्त स्त्री की  भी  कोई इच्छा होती है ?
उपालम्भों की पीड़ा , एकाकी और उदासियों  का दंश
जो मैंने झेला ,काश तुमने भी झेला  होता
रोग  ,जरा और मृत्यु ने यक़ीनन तुम्हे विचलित किया
पर  एक सत्य यह भी है  कि
मेरे अनंत प्रेम के मकड़ - जाल में
तुम्हे मुझे खोने का डर बार - बार सालता था।
शायद  इसलिए  तुम शाश्वत प्रेम की खोज  में निकल  गए
विडंबना  तो देखो  मैंने सर्वस्व न्योछावर कर दिया
 जिस  पर, उसने  अपनी जर्जर अवस्था में 
पर स्त्री के हाथों खीर खा कर  नवजीवन पाया
क्या मेरा  अर्धांगिनी होना तुम्हे रास नहीं आया था ?
मेरा आर्तनाद तुम तक कैसे न पहुंचा ,प्रिय ?
मैंने ज़ज़्ब कर लिया अंतर की ज्वाला
बहा दिया अंदर ही लावा
और पाषाण हो गयी।
तुम्हारे लिए सब क्षम्य था क्योंकि तुम पुरुष थे।
और ,अब तो ज्ञान बांटने वाले गुरु।
मैंने भी निर्वाण पाया है ,बिना वनवास के 
उत्तरदायित्व के बोझ तले,पर मैं बुद्ध नहीं कहलाई
क्योंकि यशोधराएं कभी बुद्ध नहीं बनतीं

वे बुद्ध बनाती हैं।  

Monday 1 June 2015

काल से परे

--------------------------------------



प्राची की लाली,मेरी पेशानी से होते

गालों को चूमते ,गर्दन तक  उतर जाती है

मैं उस स्निग्ध लालिमा की

रक्तिम आभ में अक्षय ऊर्जा से

भर जाती हूँ और  महसूस करती हूँ

एक गर्मी ,एक अंतश्चेतना।

डूब जाना चाहती हूँ मैं

उस गर्म अहसास में जो

हमारे प्यार सा अलौकिक होता है ।

तुम भी तो क्षितिज के सूरज हो

पिघला देते हो मेरे अंदर का बर्फ

अपने दहकते अधरों के स्पर्श से।

मेरे कानों में बेशुमार हिदायतों की

फेहरिस्त सुनाते हुए तुम्हारा मुझे

अपने पास खींच कर  लाना

ऐसा ही है जैसे पवन  का एक झोंका

 लरकती - लरजती लताओं को

अपनी मर्ज़ी से खींच लेता है।

 तुम वही पवन हो प्रिय

 जो आँधी  बन कर मुझे

 तहस  -नहस  कर देते  हो  और

मैं उफ़ भी नहीं करती।

 यही प्यार है न, जिसमे जीने - मरने की

कोई हद नहीं होती।

मैं बरसात की उफनती नदी

 लहराती - बलखाती चल पड़ती हूँ उस

महासागर की ओर जिसमे हो एकाकार

 मिटा देती हूँ देह की सीमाएँ ।

इसे प्यार की अंतिम परिणति न समझना

मैं काल से परे, वाष्प बन कर कभी

पवन  संग  मिल जाऊँगी ,कभी  नमी बन

 सूरज के आस - पास बिछ जाऊँगी।

Sunday 10 May 2015

माँ 
---------------
बहुत कोशिश की 
तुम्हें शब्दों में ढाल 
परिभाषित करूँ 
अनेक विशेषणों में अलंकृत कर 
असंख्य संज्ञाओं का पर्याय दूँ।
 पर फिर भी कागज़ खाली
 रह जाता है। 
माँ ,तुमने सुख निर्बाध रूप से बाँटा
और दुःख का सागर स्वयं में ज़ज़्ब कर लिया 
यूँ तो तुम कभी अपने लिए खुश नहीं हुई 
या तुमने महसूस ही नहीं किया कि
पति और बच्चों से इतर तुम्हारा वज़ूद है।
 तुम्हारी बीमारियों का कष्ट  
मैंने भी जीया है माँ 
और तुम्हारी ख़ुशी के आँसू
मैंने भी पीया है।
 जानती हो क्या पाया ?
तुम्हारे दर्द  के दिनों में 
पंछी गाते नहीं थे 
गुलमोहर झड़ जाते थे 
सारी प्रकृति उदास हो जाती थी।
 जिस दिन तुम अपने बच्चों के 
संवरते भविष्य को देख खुश होती 
मेरे पोर - पोर अमलतासी हो जाते।  
तुम्हारी  चमकती आँखों और
 खिलखिलाती हँसी में सूरज की उष्मा
 होती है.. हमें ज़िंदा रखने के लिए।  

Tuesday 28 April 2015

मेरा साया 
---------------------

फ़ज़ाओं  की सरगोशियाँ खामोश हैं 
एक आपसे शहर गुलज़ार होता है। 
दिल की बातें आतीं नहीं जुबां पे 
रश्क इसका बार - बार होता है। 
ताल्लुक आपसे बस ऐसा ही है 
धरती का जैसे बादल से होताहै। 
रात कट जाती है आँखों में 
उधर भी क्या यही मंज़र होता है।
इस राह की कोई मंज़िल  नहीं  
जान कर भी दिल अनजान होता है। 
कोई शिकवा नहीं ज़िन्दगी से 
इतना भी साथ किसको नसीब होता है। 
अब जाने पर हो गए हो  आमादा तो 
देखें कब मिलने का दस्तूर होता है।
 हश्र हो देखने की तो धूप में आना 
तुम्हारे साथ मेरा साया होता है। ...copyright..kv

Tuesday 31 March 2015

विदाई 
-------------------
रजनीगंधा के सेज 
द्वार पर वंदनवार 
मेहमानों की आवाजाही 
रिश्तेदारों की बधाइयाँ
और माँ के काम 
सब कुछ तो कल की भांति हैं।  
पर ,नहीं है महमह सुगंध 
और वंदनवार की चमक 
मेहमानों में जाने की जल्दी है। 
बधाइयों में महज दिलासा 
और औपचारिकता की खानापूर्ति है। 
माँ  और पिताजी  की रोज़ की बकझक 
मौन संवाद में बदल चुकी है।  
इंतज़ामकर्ताओं का हिसाब करते हुए 
दोनों बीच - बीच में कोरों पर जमा 
नमक झाड़ लेते हैं।
 पिता के चेहरे पर आज 
शिकन नहीं ,सुस्ती है।
 काम यथावत चल रहा है 
फिर भी एक वीरानी है ,उदासी है 
आँगन में ,बगिए में  ,घर में।  
कल तक सब की चिंता बनी हुई बेटी 
आज विदा हो गयी है। 

Tuesday 3 March 2015

बिन तुम
--------------------
जीवन के सब रस सूख चुके हैं
जब से मीत हमारे रूठ उठे हैं।
खिलता नहीं मधुवन वसंत में
अमराई की छाँह है  वीरानी
ताल - तटिनी के तीर में
ढूंढता हूँ उसकी निशानी
सब जतन करके हारे
अनसुनी रह गयी कहानी
गुज़श्ता कल आँखों में भर
दिन पहाड़ से बीत रहे हैं।
मन पखेरू बिन ठौर का
उजड़ गया ज्यों रैन - बसेरा
भूल कर मनहर जीवन संगीत
भटक रहा साँझ - सवेरा
पूनम की रात आती - जाती
छँटता नहीं पर मन का अँधेरा
निष्पंद ,निरर्थक सी यह काया
 जाने क्यूँ हम जी रहे हैं !