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Thursday 12 December 2013

पैंतालीस का प्रेम

कई दिनों से देख रही थी कि सामने वाले मकान में सफाई हो रही थी। मेरी बालकोनी से सामने वाले फ्लैट के अन्दर तक दिखाई देता है अगर पर्दा ठीक से न लगा हो।फिर हफ्ते भर दीवाली  की साजो सफाई में इतनी  व्यस्त रही कि  सामने वाले फ्लैट में कोई आ भी गया यह तब पता चला जब एक दिन सवेरे कुकर की सीटी सुनाई दी। विनीत जब ऑफिस से आये तो मैंने पूछा ,"क्या आपको पता है हमारा नया पड़ोसी  कौन है ?" " मुझे क्या पता, वैसे टहलते समय किसी मिस्टर बनर्जी की बात कर रहे थे सभी। वह यहीं फारेस्ट ऑफिसर हैं। "विनीत ने एक संक्षिप्त परिचय दिया और फिर टी वी देखने में मशगुल हो गए। मैंने डिनर टेबल पर लगाते हुए कहा ,"कल थोड़ा जल्दी आना। दीवाली के पहले परदे खरीदने हैं।" "अरे अकेली चली जाओ न। मुझे यह शौपिंग -वोप्पिंग बड़ी बोरिंग लगती है।"विनीत बड़े ही शांत स्वभाव वाले इंसान हैं। उन्हें केवल ऑफिस के काम से ही मतलब होता है। विवाह के पच्चीस साल के दरम्यान उसने जितनी बार मेरे बनाये खाने और मेरी तारीफ़ की है ,उसे अँगुलियों पे गिना जा सकता है।कुछेक बार उसने मुझे गज़रा भी लाकर दिया है ,पर इसलिए कि मेरे जन्मदिन पर ऑफिस स्टाफ ने उन्हें समझाया था कि पत्नी के लिए कुछ लेकर जाना।
                             दूसरे  दिन शनिवार था। विनीत के जाने के बाद घंटी की आवाज़ सुनाई दी ,मुझे लगा हमेशा की तरह घड़ी छूट  गयी होगी। जैसे ही दरवाज़ा खोला  ,सामने एक ३० - ३२ साल का युवक खड़ा  था। हाथ में एक भगोना, जिसे देते हुए उसने कहा ,"मैं आशीष बनर्जी सामने वाली बिल्डिंग में शिफ्ट किया हूँ। मेरे फ्लैट में सभी कामकाजी हैं सो नौ बजते - बजते सभी निकल जाते हैं। शाम ४ बजे दूधवाला आएगा ,प्लीज आप यह भगोना रख लीजिये। दूध ले लीजियेगा। "मैंने उस समय ज्यादा कुछ नहीं पूछा। अब तो हर तीसरे - चौथे दिन यह सिलसिला सा हो गया। भगोना देने और लेने  के साथ - साथ दो - चार बातें खड़े - खड़े ही हो जाती थी ,मसलन "शर्ट अच्छा लग रहा है। आज क्या खाया कैंटीन में? वगैरह – वगैरह ।धीरे - धीरे बातों का दौर भी बढ़ने लगा। एक दिन शाम को ऑफिस से लौटने के बाद जब वह दूध का भगोना लेने आया ,मैंने उससे चाय पी कर जाने का अनुरोध किया ,चाय की तलब उसे भी थी। साथ ही बैचलर हूड से उकताहट भी होती होगी ,इसलिए वह सहर्ष अंदर आ गया।  बातों - बातों में उसने बताया कि वह गोरखपुर का रहने वाला है। तीन विवाहित बहनों और माता - पिता के साथ का एक मध्यमवर्गीय परिवार। उसके लिए भी विवाह हेतु रिश्ते देखे जा रहे हैं,पर उसने माँ - पिताजी के हाथों यह जिम्मेवारी दे रखी  है।           
 इसी बीच विनीत  भी ऑफिस से आ गए। नीला ने उसका परिचय कराते हुए कहा,"ये हैं बनर्जी साहेब" , "नहीं - नहीं आप मुझे केवल आशीष कहें ",आशीष ने झट सुधारा । फिर विनीत और आशीष के बीच लम्बी बात -चीत हुई,ऑफिस से लेकर शहर के मनोरंजन केन्द्रों तक। अधिकतर समय  आशीष के ही बोलने की आवाज़ आ रही थी।
                                                   एक दिन सवेरे जब आशीष दूध का भगोना देने आया ,तब वह नहा कर निकली थी। सफ़ेद साड़ी में गीले बालों के साथ जैसे ही उसकी नज़र पड़ी ,वह देखता ही रह गया। नीला ने जब भगोना उसके हाथ से लिया ,तब उसकी तन्द्रा टूटी। आशीष कह उठा ,"आप तो गुलाब पर पड़ी शबनम की मोती सी लग रहीं हैं। गज़ब की सुन्दर। "अपनी तारीफ़ सुने एक अरसा बीत गया था।पहले तो उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि अब भी उसकी सुन्दरता कायम है। दिन का खाना  बनाते समय पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं। स्कूल - कॉलेज में सखियाँ उससे यह कह कर जलतीं थीं ," तुम हमारे साथ मत चलो। ।सब   तुम्हे ही देखते हैं। हमारी तरफ तो कोई नहीं देखता। "फेयरवेल में उसे ही ब्यूटी क्वीन का खिताब मिला था। पर शादी के बाद विनीत की उदासीनता और गृहस्थी के भंवर में फंस कर रह गयी। आशीष के प्रशंसा भरे शब्द उसे जब न तब गुदगुदाते रहते। दूसरे  दिन रविवार होने के कारण आशीष नहीं आएगा ,उसे पता था। फिर भी किसी खटके से उसकी नज़र दरवाज़े की ओर  उठ जाती। सोमवार का तेज़ी से इंतज़ार होने लगा। उस दिन उसने जानबूझ कर दरवाज़ा खुला छोड़ा था। आशीष ने भगोना पकड़ाने  के साथ कहा ,"माँ कहती थी कि सुबह - सुबह सुन्दर चीज़ देखने से सारे दिन ताजगी बनी रहती है। माँ ने गलत नहीं कहा था। "नीला के  गालों में लालिमा छा  गयी। मुस्कुरा कर उसने उसे विदा किया।जाने क्या कशिश थी आशीष की आँखों में जो उसे बारम्बार अपनी ओर खींच रहीं थीं। उम्र के  पैंतालिसवें  पड़ाव पर यह क्या हो रहा है !किसी का इंतज़ार ,किसी के लिए बेचैनी ।ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ। विनीत के घर पर होने से एक तनाव सा महसूस होता। अकेलापन अच्छा लगता था। ऐसा नहीं था कि नीला में आया आकस्मिक बदलाव विनीत ने महसूस न किया हो। शाम के समय का उसका बनाव - श्रृंगार विशिष्ट हो गया था। पहले हर दो - एक दिन  पर विनीत से जिद करती थी कि घर के काम - काज  से वह थक जाती है ,बाहर जाकर सब्जी - राशन लाने का मन नहीं होता ,सो ऑफिस से आते समय वह लेते आया करे।विनित अपनी सफाई देता ,"मैं भी आठ घंटे कोई आराम फरमा  कर नहीं आ   रहा   हूँ ,तुम ही जा कर ले आओ ,वैसे भी दिन भर से घर में पड़ी हो। " लेकिन पिछले कई दिनों से ऐसी किच  - किच नहीं हो रही थी। विनीत को चाय सौंपने के बाद वह स्वयं ही झोला लेकर निकल पड़ती। कई बार विनीत  ने  उसे रसोई में काम करते - करते अपनेआप में मुस्कुराते भी देखा।एक दिन उसे टोहते हुए विनीत ने पूछा ,"आशीष को किसी दिन खाने पर  बुला लो ,आखिर अकेला प्राणी है। "किसी और के आने की बात रखने से भी वह कभी इनकार नहीं करती थी पर कुछ कड़वा ज़रूर सुना  देती,"हाँ  नौकरानी जो ठहरी ,मुफ्त में खिलाते रहो। "पर इस बार सहर्ष स्वीकार कर लिया। डिनर टेबल सजा कर वह खुद भी अच्छी  साड़ी पहन कर ,बालों में गजरा लगा कर तैयार हो गयी। आशीष बहुत खुले दिल से विनीत के स्वभाव और नीला के बनाये  खाने की तारीफ़ करता रहा। जाते - जाते आशीष ने विनीत को धन्यवाद के साथ एक कमेंट भी दिया ,"आप बड़े भाग्यशाली हैं जो नीला जी जैसी पत्नी मिली। मैंने गाँव में खबर भेज दिया है कि इनके जैसी रूपवान  और दक्ष लड़की से ही विवाह करूंगा। "नीला सकपका गयी।रात को इस पूरे घटनाक्रम पर दोनों देर तक बातें करते रहे। विनीत चुटकी लेता रहा ," आशीष तो तुम्हारा दीवाना हो गया है। "हमेशा काम के बोझ तले  मुरझाया नीला का  चेहरा अब खिल रहा था। विनीत को उसकी चुप्पी खलती। वह चाहता था वह पहले की तरह उससे लड़े  - झगड़े ,पर नीला एक नए जोश में सारे काम निबटाती। अगले रविवार को आशीष के आने का कोई सवाल नहीं उठता था क्योंकि उसकी छुट्टी होती थी। करीबन साढ़े  दस बजे कॉल बेल बजी। दरवाज़े पर आशीष खडा था। उसके हाथ में एक शादी का कार्ड भी। अभिवादन का स्वर सुनकर नीला चहकते हुए बाहर आयी ,"अरे !आज कैसे ?"आशीष ने शादी का कार्ड उसकी और बढाते हुए कहा ,"अगले महीने की बीस तारीख को मेरी शादी तय हुई है। आप दोनों को गोरखपुर आना होगा। माता - पिता को पता था कि  उनकी पसंद ही मेरी पसंद है ,इसलिए   केवल तारीख  की  सूचना  दे दी। "नीला का चेहरा एक बारगी उदास  हो गया ,फिर तुरंत सँभालते हुए उसने उसे बधाई दी।

                                         इस घटना के बाद दो दिन यूँ ही बीत गए। तीसरे दिन अचानक विनीत ने ऑफिस से आते समय एक गजरा खरीद लिया। शाम के छह बजे थे ।नीला अपने कमरे की साज़ - सफाई  में लगी  थी। पिछले कई  शामों की तरह बहुत उत्साहित नहीं। अचानक विनीत ने उसे पीछे से आकार थाम लिया और कहा ,"चलो ,तैयार हो जाओ ,आज बाहर चलते हैं। दिन भर काम में लगी रहती हो। "इस अप्रत्याशित प्यार भरे हमले को तो वह जाने कब से भूल चुकी थी। विवाह के आरंभिक सालों में विनीत शायद ही खाली हाथ घर आता। कई बार तो उसकी सुन्दरता पर कुछ पंक्तियाँ गा देता। इस प्यार से अभिभूत वह जल्दी ही तैयार हो गयी। आईने के सामने एक बड़ी बिंदी लगाते समय विनीत ने पीछे से उसके  बालों  में  गजरा टांक दियाऔर फिर बाँहों  में भर कर कहा ,"वाह !क्या लग रही हो। ज़न्नत की हूर कहूँ या आँखों की नूर। "शायरी अभी और होती कि नीला ने उसके होंठों पर अँगुली रखते हुए कहा ,"अब ,चलो भी। "दीवाली की खरीदारी दोनों ने साथ- साथ करने की ठानी। विनीत के इस  परिवर्तित व्यवहार पर नीला सोचती कि आशीष का उसके मोहल्ले में आना उसके जीवन में बहार लाने के लिए ही था। ऐसा बहार जो  अब कभी   पतझड़ नहीं झेलेगा ,आखिर एक - दूसरे  में  आकर्षण खोजने का मूलमंत्र आशीष ने दे दिया था।

Friday 29 November 2013

आत्मसंयम यानि  मन पर विजय

भौतिकवादी समाज की  कुरीतियों में काम ,क्रोध ,लोभ, मोह ,अहंकार आदि मनोविकार मनुष्य के मन पर अधिकार बनाए हुए हैं और अवसर पाते ही अपना दुष्प्रभाव दिखाने लगते हैं। बड़े से बड़े महात्मा हों या उच्चाधिकारी ,आत्म संयम के अभाव में अपनी प्रतिष्ठा खो बैठते हैं।  ये नदी के प्रभाव  की  भांति बहते हुए मनुष्य - जीवन में अनेक बाधाएँ डाल  कर उसे मलिन और निराशपूर्ण बना देते हैं। इनकी प्रतिद्वंद्विता में आत्मसंयम का  सहारा ले लिया जाए तो मनुष्य जीवन की  सफलता में संदेह नहीं रहता। इन पर काबू पाना या अपने को वश में करना ,जगत को जीत लेना है। साधारण मनुष्य की  तो बात ही क्या ,बड़े - बड़े सम्राट भी काम के अधीन हो आत्म - संयम की तिलांजलि दे डालते हैं और कठिनाइयों की  कीच में अवश्यमेव  फंस  जाते हैं। इतिहास प्रमाण है कि गांधीजी ने क्रोध पर नियंत्रण कर के प्रेम और अहिंसा के अस्त्रों द्वारा अंग्रेजी साम्राज्य का अंत किया। बुद्ध ने राजसी वैभव के मोह और लालच को त्यागा तभी वे सत्य की  साधना कर सके। कहाँ   तो  एक साधारण सी जागीर और कहाँ उसके स्थान पर इतना बड़ा महाराष्ट्र प्रदेश !कहाँ थोड़े से मावली और कहाँ बीजापुर के सुलतान का असंख्य दल - बल ,अफ़ज़ल खान और शाइस्ता खान जैसे दुर्दम्य सेनापतियों का सामना करना कोई हँसी  - खेल था। पर वीरवर शिवाजी ने असफलता का कभी नाम भी नहीं सुना क्योंकि उनमे आत्मसंयम कूट - कूट कर भरा हुआ था।
                 

                                         जो व्यक्ति इंद्रियों के दास होते हैं ,वे इंद्रियों की  इच्छा - शक्ति पर नाचते हैं। संयमहीन पुरुष सदा उत्साह- शून्य ,अधीर और अविवेकी होते हैं ,इसलिए उन्हें क्षणिक सफलता भले मिल जाए ,अंततः उन्हें बदनामी और पराजय ही मिलते हैं। आत्मसंयमी व्यक्तियों में सर्वदा उत्साह ,धैर्य और विवेक रहता है जो उनकी सफलता की  राह तय करते हैं। मानव की  सबसे बड़ी शक्ति मन है इसलिए वह मनुज है। प्रकृति के शेष प्राणियों में मन नहीं होता ,अतः उनमे संकल्प - विकल्प भी नहीं होता। मन की  शक्ति अभ्यास है ,विश्राम नहीं। इसलिए तो मन मनुष्य को सदा किसी न किसी कर्म में रत रखता है। आत्म - संयम को ही मन  की  विजय कहा गया है। गीता में मन - विजय के दो उपाय बताये गए हैं-- अभ्यास और वैराग्य। यदि व्यक्ति प्रतिदिन त्याग या मोह - मुक्ति का अभ्यास करता रहे तो उसके जीवन में असीम बल आ सकता है। यह कुछ महीने की  देन  नहीं होती है,एक लम्बे समय की  ज़रुरत है। फिर तो दुनिया उसकी मुट्ठी में होगी। एक बार मोह - माया से विरक्त हो जाओ तो वैराग्य मिल जाएगा। भारत में आक्रमण कारी शताब्दियों तक लड़ाई जीत कर भी भारत को अपना नहीं सके क्योंकि उनके पास नैतिक बल नहीं था। शरीर के बल पर हारा  शत्रु  बार - बार आक्रमण करने को उद्धत होता है परन्तु मानसिक बल से परास्त शत्रु स्वयं - इच्छा से चरणों में गिर पड़ता  है। इसलिए तो हम प्रार्थना करते हैं - "हमको मन की  शक्ति देना ,मन विजय करें ,दूसरों की  जय से पहले खुद को जय करें। "

Tuesday 19 November 2013

  क्या सचमुच बीता
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 बीत   गया जो कल 

अतीत का बन पल 
सचमुच बीता ,या है छल 
बताओ, इस पहेली का हल। 

मिलन देहरी पर नैन बिछाए 

आते हैं सावन ,वसंत कुम्हलाए 
नूतन सम्बन्धों का आवरण चढ़ाए 
बिसर रहे हैं पुरातन के साए। 

यंत्रवत सी जीवन की  गति 

स्वकृत बाड़  में विचरता मति 
तृषा - जाल है भरमाता अति 
हर पराजय में जीवन की इति। 

समय का फेर बेशक भारी  पड़ता 

फिर भी वर्षों से मन रीता लगता 
हवाओं संग जब कचनार महकता 
अधरों पर मुस्कान थिरकता 

मुस्कान यह अनायास क्यूँ उभरता 

बेमौसम मेघ का एक टुकड़ा उतरता 
और आँखों  में क्यूँ है छा जाता 
जब सब कुछ है बीता ?

इक  बूँद स्वाति का बन 

इक वारिद तृप्ति का बन 
इक विभास आस का बन 
इक ज्योत अमावस का बन

उर  के स्पंदन  में अतीत बसता 
कभी हर्ष , कभी अश्क बनता 
कभी दर्द, कभी दवा बनता 
बीता ,फिर क्या सचमुच बीता ?

Thursday 7 November 2013

हे अंशुमाली
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युग आते,युग भरमाते
निरंतर होने का
होकर मिट जाने का ।
पीढ़ियों के उद्भव - अंत का
सभ्यताओं के उत्थान - पतन का
तुम एकमात्र गवाह हो।
मेघों के बनने  का
नदियों के बहने का
फसलों के पकने का
तुम एकमात्र आधार हो।
या यूँ कहें  कि
जीवन के फलने का
साँसों के चलने का
तुम एकमात्र पर्याय हो।
हे दिवसपति ,होते दीप्तमान जब
खिल उठते हैं सुमन मधुर
उड़ जाते पंछी सुदूर
छोड़ मर्त्यमान निशा का दामन
चहक जाते गाँव और कानन
घूमती रहेगी जब तक
धुरी पर पृथ्वी
तुम भी दिखोगे अनवरत
कभी इस पार
कभी उस पार
इधर गति का प्रणेता बनकर
उधर विश्राम का प्रतीक बनकर
हे अंशुमाली
सृष्टि का उद्गम  हो तुम
विनाश का मूल हो तुम
चराचर जगत के
तुम एकमात्र उपदेशक हो।  

Monday 26 August 2013

महात्मा कैसे कहलाऊं

प्रगतिशील व्यक्ति में दो गुण अवश्य होते हैं -- निर्भयता और मौलिकता (नयापन )। निर्भयता  उसे तमाम अवरोधों से लड़ने की शक्ति देता है ।यह  तो तय है कि प्रगतिशील लोगों के दुश्मन भी अनेक होते हैं , घर में भी और बाहर भी,क्योंकि किसी की तरक्की लोगों को रास नहीं आती है ।  निर्भयता के साथ आत्मविश्वास जुड़ा होता है क्योंकि यही आत्मविश्वास अँधेरे में उजाले की लौ जलाए रखता है।ऐसे  लोग सदैव ही अपने कौशल और साहस से अवसर को प्राप्त करते हैं। शक्ति और इच्छा के द्वारा अवसरों को सर्वोत्तम सफलता तक पहुँचाना उनकी मौलिकता और निर्भयता के कारण ही है। परन्तु एक प्रगतिशील व्यक्ति केवल अपनी प्रगति  से ही संतुष्ट नहीं रहता है ,वह समाज की उन्नति के लिए भी प्रयत्न करता है नहीं तो वह स्वार्थी कहलाएगा। वैसे भी मानसिक साधना के तीनों सोपानों स्वाध्याय ,सत्संग और सेवा में सबसे ज्यादा महत्त्व सेवा का है। इसे सभी कर सकते हैं - अकेले भी और सामजिक रूप में भी।  मौलिकता वह आवश्यक शक्ति है जो आपके अन्दर ही छिपी है ।आप बाहरी  सहायता  से सफल होंगे- यह भ्रम जितनी जल्दी दूर हो जाए ,उतना ही अच्छा है ।बाहरी सफलता में कोरी प्रंशसा छिपी रहती है जो मनुष्य को आत्मकेंद्रित बना देती है और एक बार "मैं "," मुझे " और" मेरा" की लत  लग जाए तो फिर मनुष्य पतनगामी  हो जाता है।  जब अन्य गुण साथ छोड़ जाते हैं तब अध्यवसाय अर्थात निरंतर अपने कार्य पर अड़े रहना ,आगे बढ़ता है और व्यक्ति को विजयी बनाता है। मौलिकता निरंतर अभ्यास से बनी रहती है। यही सृजनशीलता है जो मनुष्य को कर्मवादी बनाता है। नेपोलियन और रावण में यही अंतर था। रावण सबल था पर संकल्पशक्ति से कमज़ोर ,नहीं तो स्वर्ग से धरती तक सीढ़ी बनाने का ख्वाब रह नहीं  जाता। नेपोलियन निर्भय होने के साथ - साथ संकल्प का भी पक्का था ,इसलिए तो हाथ में स्वयं से रेखा बना कर विश्व - विजय के लिए निकल पड़ा। जब तक ये दोनों गुण मौजूद हैं स्व उत्थान के साथ पर कल्याण भी  होता  रहेगा।  एक बात याद रखनी चाहिए कि प्रत्येक आपत्ति शाप नहीं होती। जीवन की प्रारंभिक आपत्तियां बहुधा आशीर्वाद होती हैं ।जीती हुई कठिनाइयां न केवल हमें शिक्षा देती हैं ,बल्कि वे प्रयत्नों से हमें साहसी बनातीं हैं ।इस सन्दर्भ में सुकरात की जीवनी सटीक है ।सुकरात की पत्नी क्रोधी स्वभाव की थीं जो अक्सर उन्हें अपशब्द बोलतीं रहतीं ।एक बार उनके एक शिष्य ने कहा कि उनकी पत्नी उनके योग्य नहीं। सुकरात बोले ,"नहीं यह गलत है। यह ठोकर लगा - लगा कर देखती रहती है कि मैं कच्चा हूँ या पक्का ,यानि मेरी सहनशक्ति कितनी है ?अगर मैं भी उसकी तरह बन जाऊं तो फिर महात्मा कैसे कहलाऊं ?"
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Saturday 17 August 2013

 मन - वीणा की झंकार

चाँद छलकता बूंद - बूंद 
आसमां के पैमाने से ।
मिलन देहरी पर ठिठकी 
सुन नाम मनुहार के 
अलसाई रजनी छिटकी 
कचनार के बयार से 
खिल उठी प्रकृति प्यारी
 मन - वीणा की झंकार से ।
उर सरवर  उमड़ पड़ा 
नेह के मीठे पावस से 
सूना आँगन गूंज पड़ा 
प्रीत के मंगल - गान से 
ताम्बाई बदन में भोर लजाई 
अरुणोदय के बहाने से ।
चिंदी - चिंदी लम्हे 
शून्य को भरते 
वैरागी मन बहे 
जिधर अनुराग बीज झरते 
जीने की चाह  जाग उठी 
एक अशरीरी अहसास से ।

Monday 12 August 2013

                            स्वतंत्रता का मोल                                          

स्वतंत्रता का सुख क्या होता है ?यह उससे पूछो जो वर्षों से काल - कोठरी   में बंद है या फिर पिंजरे में बंद पक्षी जिसके पंख हैं पर परवाज़ नहीं ।  वर्षों से गुलामी की जंजीर में जकड़े भारत देश के लिए स्वतंत्रता उस उगते सूरज के समान थी जिसने कभी अस्त होना नहीं जाना ।आजादी के बाद का दौर अनेक समस्याओं से पूर्ण था लेकिन स्वतंत्रता का जोश उन सब के निवारण के लिए पर्याप्त था ।एक अखंड भारत का निर्माण जिसमे भाषा - भूषा ,और ऊँच - नीच के भेदभाव का कोई स्थान नहीं था। नेहरु ,गाँधी ,पटेल और अंबेडकर के साथ - साथ इनके समकक्ष दूसरे सेनानियों और नेताओं के प्रयास से स्वतंत्र भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न राष्ट्र में तब्दील हुआ ।संसार के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश की संरचना अद्वितीय तो थी ही ,अब उसकी राष्ट्रीय  एकता भी दूसरों  के लिए मिसाल बन गयी ।ईद - दीवाली  ,हिन्दू - सिक्ख  और चर्च - मंदिर में कोई अंतर नहीं ।यह मज़बूत गठन ही बाह्य ताकतों से लड़ने वाला एक अक्षुण्ण मिसाइल है ।देश की गरिमा उसके अप्रतिम सौन्दर्य के साथ - साथ मानवीय क्षमताओं से पूर्ण उस सम्पदा का परिणाम है जो पत्थर को भी हीरा बना दे और सूरज को भी मुट्ठी में क़ैद कर ले ।
                           आंतरिक एकता देश की आत्मा है स्वतंत्रता की ६६ वीं वर्षगाँठ मनाते  समय उन चुनौतियों को भी याद रखना है जो समय - समय पर हमारी परेशानियों का सबब बनतीं हैं ,मसलन कश्मीर में पाकिस्तानियों की दखलंदाजी ,चीनी सैनिकों का उपद्रव ,झारखण्ड के नक्सालियों  का आतंक ,तेलंगाना राज्य की मांग और प्राकृतिक जलप्लाव से उभरा  संकट ।आर्थिक अस्थिरता और मुद्रा- स्फीति भी बड़ी समस्या है ।देश्वासी और प्रशासन समस्याओं से वाकिफ हैं और उनके निदान के लिए प्रयत्नशील भी ।आज का दिन वीर सेनानियों के बलिदानों को याद करने का है ।कुछ देर के लिए समस्याओं को भूल कर उन वीर सेनानियों को हम नमन करते हैं जिन्होंने सरफरोशी की तमन्ना का प्रण किया और आने वाली पीढ़ी को स्वतंत्र राष्ट्र का उपहार दिया। अब तो प्रण हमें करना है ,"ए जननी जन्मभूमि ,सेवा तेरी करूँगा ,तेरे लिए जिऊँगा ,तेरे लिए मरुंगा ।हर जगह ,हर समय में ध्यान तेरा ही होगा ,निज देश और राष्ट्र का भक्त बना रहूँगा। "
                              गत वर्षों में देश ने प्रत्येक क्षेत्र में जैसे कृषि ,उद्योग और परमाणु  क्षेत्रों  में अविश्वसनीय    सफलता  के आँकड़े  दिए हैं पर उन्हें मंजिल नहीं मान लेना चाहिए ।विकास एक सतत प्रक्रिया है जिसमे पूर्ण - विराम के लिए कोई जगह नहीं है ।राष्ट्र - हित के लिए चौकी पर तैनात माँ के वीर लाल   अपना बलिदान देते रहते हैं। वे सजग प्रहरी हैं इसलिए हम सुख की नींद सोते हैं ।उनकी तरह निःस्वार्थ भाव से अपने - अपने कार्य - क्षेत्र में हमें आगे बढ़ना है ।हमारा अखंड और खुशहाल भारत हमारे सम्मिलित प्रयासों का ही प्रतिफल है। रोबर्ट फ्रॉस्ट की पंक्तियाँ हर युग में प्रेरणा स्रोत हैं ,"कठिन सघन वन और अँधेरी ,मूक निमंगम छलना है ,अरे अभी विश्राम कहाँ ?,बहुत दूर हमें चलना है। बहुत दूर हमें चलना है। "

Wednesday 7 August 2013

अहिंसा के तीन रूप

शाब्दिक तौर पर किसी को मारने की इच्छा हिंसा कहलाती है और ऐसी इच्छा का न होना अहिंसा कहलाता है ।अहिंसा के तीन रूप हैं जो उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। किसी को अपने शरीर द्वारा कष्ट न पहुंचाने की इच्छा न करना शारीरिक अहिंसा है ।वाणी से कष्ट की इच्छा न करना वाचिक अहिंसा है और किसी का मन से भी बुरा न चाहना मानसिक अहिंसा है। अतः हमें मनसा ,वाचा और कर्मणा तीनों रूपों में हिंसा से  बचना चाहिए। आज के युग में अहिंसा का मतलब शारीरिक हिंसा न करने को ही लिया जाता है क्योंकि यह प्रत्यक्ष रूप में दिखाई पड़ता है। शरीर पर लगे चोट तो फिर भी मिट जाते हैं पर वाचिक हिंसा शायद सबसे ज्यादा आघात करता है क्योंकि यह मन पर वार करता है। मीठी वाणी का इसलिए बहुत महत्त्व है ।एक छोटी सी घटना सुनाती हूँ।एक  व्यक्ति  को वरदान में तीन गोले मिले जिसका इस्तेमाल वह तीन बार ही कर सकता था।   ।वह ख़ुशी - खशी अपने घर में घुस ही रहा था कि  उसका बेटा आकर उससे लिपट गया। इस अचानक के प्यार में एक गोला  गिर गया।  वह गुस्से में डपटा ,"तेरी आँखें नहीं हैं। "इतना कहते ही बच्चे की आँखें चलीं गयीं। व्यक्ति आसमान से गिरा ,उसे दूसरे  गोले की याद आयी। झट एक गोला  ज़मीन पर गिरा कर बोला  ,"मेरे बेटे के चेहरे पे आँखें लग जाएँ। "देखते ही देखते बच्चे के चेहरे पे कई आँखें निकल गयीं। उस भयानक सूरत को देख कर उसे झट तीसरे गोले की याद  आयी। उसने उसे भी फोड़ा और वर माँगा कि  बेटे का चेहरा केवल  दो आँखों के साथ  सामान्य हो जाये। इस तरह से मुश्किल से कमाए उसके तीनों वर वाणी  की असंयमता के कारण नष्ट हो गए।वाणी  किसी मनुष्य के अंतर को जानने का सीधा सा माध्यम है। जैसी सोच ,वैसी बोल। यह तो   सीधी सी  बात है कि  जो वाणी का अच्छा होता  है ,उसे सभी पसंद करते हैं। विद्यालय  ,ऑफिस ,व्यापार हर जगह यह लागू होता है। इस हिंसा को रोकने के लिए बस इतनी शपथ लेनी है कि  हम भले कुछ न बोलें   पर कड़वा न बोलें । यह शपथ गुस्से पर काबू करना भी सिखा देगा और बेबुनियाद बातों पर विश्वास करना भी छुड़वा  देगा। यानी एक वृत्ति  पर विजय पाना  कई वृत्तियों पर विजय पाने जैसा है।     हमारे मन के तार दूसरे लोगों ,यहाँ तक कि पशु - पक्षियों के तार से भी जुड़े रहते हैं इसलिए जब हम किसी के लिए बुरा सोचते हैं तो उसके मन में भी हमारे लिए दुर्भाव पैदा हो जाता है ।यदि हमारा मन किसी के लिए सद्भावयुक्त है तो उसके मन में हमारे प्रति कोई द्वेषभाव भी है तो वह समाप्त हो जाता  है ।महात्मा आनंद स्वामी ने अपनी जीवनी में कहा है कि जब वे स्वामी गंगागिरि के सान्निध्य में तप कर रहे थे तो एक शेर को उनकी ओर आते देख घबरा कर स्वामी जी को सचेत करना चाहा ,पर स्वामी गंगागिरि तटस्थ थे ।जब शेर उनके पास गया तब उन्होंने उसकी पीठ सहलाई और प्यार किया ।शेर परे चला गया ।अहिंसा को इसलिए परम धर्म कहा गया है जिसमे सब बैर ,भय और आशंका दूर हो जाते हैं ।

Monday 22 July 2013

    ज्ञान

छूटेगा  संशय  ,टूटेगा  भ्रम 
व्याधियों का नहीं चलेगा क्रम 
तेज का दर्प जगमगा उठेगा 
ज्ञान से आलोकित घर - घर होगा 
यही संकल्प दृढ़ करना है  
जन - जन को शिक्षित करना है ।
जहाँ नहीं ज्ञान का प्रकाश है 
वहाँ  अन्धविश्वास का राज है 
शिक्षा पर  टिका है सदाचार 
सुख - शांति का यह आधार 
जात -पात के झगड़े हटाना है 
ऊँच - नीच का भेदभाव मिटाना है। 
धर्म के नाम पर जो दंगे करते 
मज़हब के खिलाफ आतंक रचते 
ज्ञानालोक से वे मरहूम रहते हैं 
इसलिए नहीं जानते वे क्या करते हैं 
कर्णधारों को शिक्षित करना है 
प्रौढ़ शिक्षा का अलख जलाना है ।
अज्ञानता का तम जब छंटेगा
बुराइयों का महल ध्वस्त होगा 
नवनिर्माण का बीज अंकुरित करके 
हर चेहरे पर मुस्कान खिला के 
अपना भाग्य सितारा चमकाना है 
भारत को अग्रगणी बनाना है । 

Wednesday 17 July 2013

मैं एक पेड़ होती


 मैं एक पेड़ होती 

कभी - कभी लगता है 
कितना अच्छा होता गर 
मैं एक पेड़ होती  !
मेरी ठंडी घनी छाँव में
तुम थोड़ा सुस्ता लेते
जो होते श्रांत - क्लांत ।
देख तुम्हें खिल उठते
मेरे  फूल से अंग - प्रत्यंग
और गिर कर तुम्हारी राहों में
सुन्दर सेज सजा देते ।
मेरी शाखाओं में बैठे पंछी
मधुर स्वर में कलरव कर
तुम्हे मीठी नींद सुला देते
मेरी तना से सट कर
तुम्हारा खड़ा होना
वह स्पर्श सुख देता
जिसके अहसास से आजीवन
मैं झूमती - लहराती रहती
एक अनोखे उन्माद में ।
इक सपना भी संजोयी हूँ
कि जिस दिन गिर जाऊँ
भीषण आँधी की मार से
तुम मुझे माटी दे देना
तुम्हारा स्पर्श चिरनिद्रा में भी
अपेक्षित रहेगा।     

Tuesday 2 July 2013

जान नई भरते हैं

 जान नई भरते हैं 

मौसम की अंगड़ाई कुछ कहती है 
फिज़ाओं में तरन्नुम भरती है 
भूल कर अपनी खताओं को
 एक - दूजे का  हाथ थामते हैं  ।
बड़ी शिद्दत से सजाया है यादों को 
खट्टी - मीठी बातों और तकरारों को 
सुस्त पड़ी बेजान धडकनों में 
आओ जान नई भरते हैं । 
रात शबनमी बार - बार आती नहीं 
नूर की कशिश हर दम लुभाती नहीं 
धवल चांदनी का नेह निमंत्रण 
आओ मिल कर स्वीकारते हैं ।
कारवाँ ज़िन्दगी का चलता जाएगा
किस टीले पे जाने कब पड़ाव आएगा 
थोड़ा तुम चलो ,थोड़ा मैं चलूँ 
ख्वाब कोई नया बुन डालते हैं ।
जी रहे हैं हम इस तमन्ना में 
कभी तो रंग भरेंगे कोरे कागज़ में 
शमा इक जलती है उम्मीदों में 
जलने को परवाने मचलते हैं ।
सागर सी ख़ामोशी में हमारी 
छिपी है प्यार की गहराई तुम्हारी 
ढहती हुई रेत को समेट  कर 
चलो ,महल इक नया बनाते हैं ।

Tuesday 25 June 2013

मृगतृष्णा 

अनंत मुरादों से भरी झोली 
कंधे पे लटकाए घूमता है वह 
इसके वजन से थकता - हाँफता
बेहाल परेशान हो जाता है 
हर मुराद में निहित खुशियाँ 
कभी छलक जातीं कभी झलक जातीं 
अक्षय होतीं  हैं ये ईप्साएँ
एक पूर्ण हुई  नहीं कि
कई और जनम जातीं  हैं ।
इन्हीं ईप्साओं के इर्द - गिर्द 
घुमती है दिनचर्या अहर्निश 
इनसे भरता उसके सुख का पैमाना 
यही देता उसकी सफलता का आँकड़ा।
अनेक बार तो इच्छाएँ 
पीढ़ी दर पीढ़ी ढोई जातीं हैं 
कभी परदादाओं के हेतु 
कभी भावी संतानों के हेतु ।
क्या ही अच्छा होता 
उतना ही पसारता पैर वह 
जितनी लम्बी चादर होती !
चाहतों की मृगतृष्णा में 
वह दौड़ता रहता है 
क्योंकि उसे पता नहीं कि
जीवन सुगन्धित करने वाली 
संतोष की कस्तूरी तो 
उसके जेहन में  ही है ।

Tuesday 4 June 2013

  मानव - चित्र 

इन ईंट के पक्के मकानों में 
दरीचों से झाँकती धूप
स्वर्ण उजालों सी करती हैं जगमग 
मलमली गलीचों में 
दूब सी नर्माहट
बेहद भली लगतीं हैं ।
 विशाल फूलदानों में 
रंग - बिरंगे फूल 
नैसर्गिक छटा बिखेरते हैं ।
दीवारों के खूबसूरत कैनवस 
पर अपनों के चित्र 
आत्मीय अहसास देते हैं ।
सब कुछ तो है इस पुख्ता मकान में 
कुछ नहीं है तो बस 
उन रिश्तों की गर्माहट जो 
एक चित्र  में क़ैद हो रह गयी है ।
भरे - पूरे घर में हर कोई 
एकाकी जीवन जी रहा है 
एक - दूसरे से बेखबर 
अपने ही बुने जाल में फंसा 
अनजाना सा गिरह काटता हुआ ।
दीवारों की कलात्मकता में सुशोभित है 
आंसू  बहाता एक मानव - चित्र 
लोग कहते हैं कि यह पेंटिंग 
इस घर की शोभा बढ़ा देता है 
वह इसलिए कि वास्तविकता 
सदैव सराही जाती है ।
घर की बेजुबां होती 
भावहीन रिश्तों की कहानी 
यही दर्शाता है 
बाकी सब बेमाने हैं 
 खोखले हैं ।

Sunday 26 May 2013

आलेख

                                                                            मुक्तिबोध
कल्पना कीजिये एक पिंजरे में बंद पक्षी ...पंख फड़फड़ा कर अपनी वेदना ज़ाहिर करते - करते या तो लहूलुहान हो जाता है या फिर थक कर सो जाता है  ।कमोबेश यही स्थिति औरतों की भी है ।पंख है ,परवाज़ नहीं। आदिकाल की देवी ,मध्य काल की योग्य स्त्री ,भक्ति काल में माया बन गयी और आज का बाजारवाद उसे वस्तु में बदल दिया। परिवर्तन  का आयाम सबसे ज्यादा महिलाओं में ही दिखा ।कभी उसके अक्षर ज्ञान को मुक्ति का साधन माना गया तो कभी पूरी तरह साक्षर होकर आत्मनिर्भर होने को। आज औरतें बहुत हद तक आत्मनिर्भर हैं पर हर आत्मनिर्भर औरत सुखी नहीं ।ममता ,कोमलता जैसे स्वाभाविक गुणों की तिलांजलि देकर पुरुषों से कन्धा मिला कर चलने वाली स्त्रियाँ संतुष्ट भी नही हैं। सुख को उसने खरीद लिया पर सुख को महसूस नही किया ।आधुनिकता की आड़ में औरतों की नई भूमिकाएं उन्हें एक जाल में फांस लेती है ।एक निश्चित दायरे में रह कर आत्मविश्वास से लबरेज अपनी जिम्मेदारी निभाना और बात है ।यह स्वतंत्रता प्रगति का सूचक नहीं है ।पितृसत्ता आज भी है भले ही स्त्री - पुरुष के संबंधों में खुलापन और नजदीकियाँ बढ़ी हैं ।यह बदलाव आर्थिक दृष्टिकोण से मज़बूत हुआ है न कि सामाजिक दृष्टिकोण  से ।समाज तो इसे मजबूरीवश स्वीकारता गया  ।जहां परिवार का स्टेटस  बढ़ा है वहीँ आपसी विश्वास की लौ बुझने लगी है। आधुनिकता का लिबास ओढ़े पुरुष आज भी अपनी पत्नी के सहकर्मी पुरुष के एक फ़ोन पर चिल्लाने लगता है और आवश्यकता वश अगर वह अपने पुरुष मित्र के बाइक पर बैठ गयी तो एक बवंडर खड़ा कर देता है। वर्षों का साथ विश्वास के रेतीले आधार पर खड़ा भरभरा जाता है ।इसलिए  शादी  अपना आकर्षण खोकर कहीं न कहीं एक समझौता बन कर रह गया है ।
प्रेम और विश्वास के साथ आगे बढती स्त्रियों को पुरुषों का अपेक्षित सहयोग मिलता रहे तो इस बदलाव और स्त्री - पुरुष के संबंधों में हो रहे बदलाव को अपनाना सहज हो जाएगा ।इंसानों में मुक्तिबोध ज्यादा पनपता है ।समाज के सही संचालन के लिए नियम अपेक्षित हैं लेकिन किसी एक को बंधन में इतना जकड़ दिया जाए कि वह छटपटा उठे तो फिर मुक्ति की भावना विद्रोह का स्वर अख्तियार कर लेती है ।
 जब से स्त्रियाँ अपने अधिकारों के प्रति सजग हुईं तब से समाज में एक नई बहस छिड़ी जो कभी स्त्री - समानता ,कभी स्त्री - जागरण तो कभी स्त्री - विमर्श के रूप में निरंतरता बनाये हुए है ।यह बहस पश्चिम के व्यापारवादी तर्क से पैदा होते हैं और विकासशील देशों पर थोप दिए जाते हैं ।भारत में कामसूत्र और मनु संहिता जैसी रचनाओं में कभी   स्त्री का चरित्र - हनन नहीं किया गया जैसा कि पश्चिम में लिखे सेक्स - साहित्य में उधेड़ा गया। वहाँ माँ के  संस्कारवादी चरित्रों से हटकर महज एक भोग्या मान कर लिखा गया।  स्त्री विमर्श ने स्त्री के मुक्ति संघर्ष को धार प्रदान की है। यदि यह विमर्श किसी एक वर्ग की श्रेष्ठता का हिमायती न हो ,दोनों की समानता का हिमायत करता हो ,तभी एक सह - अस्तित्व परक समाज की स्थापना होगी। स्वतंत्र विचार ,स्वतंत्र प्रतिक्रिया और स्वतंत्र हस्तक्षेप मुक्ति की पहली शर्त है ।उच्च और निम्न वर्ग के लिए यह इतना पेचीदा नहीं है जितना मध्य वर्ग  की स्त्रियों के लिए  ,क्योंकि यही वर्ग शिक्षा के क्षेत्र में आगे है।  यही वर्ग महत्त्वाकांक्षी और जागरूक है तथा इसे ही औरों से अधिक प्रतिरोधों का सामना करना पड़ता है ।साहित्य समाज का दर्पण है। आलोचक चाहे जो बोलें पर एक ऐसी स्त्री जिसके लिए देह उसकी पूँजी ,पहचान और जीने का आधार है ,वह पूर्णतः स्वतंत्र है ।वह सक्षम ,आत्माभिमानी और अपराधबोध से मुक्त है ।वह सामजिक और आर्थिक रूप से स्वतंत्र है और नैतिकता के परंपरागत मानदंडों को तोड़ती हुई एक नए समाज की संरचना में व्यस्त है ।समय आ गया है कि ज्ञान की पराकाष्ठा को समझते हुए लिंग आधारगत भेदभावों को हटाकर एक शिक्षित समाज की बुनियाद पर ध्यान दिया जाए जो स्त्रियों के मुक्तिबोध का सूचक होगा ।

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Tuesday 7 May 2013


बरगद की छांव में

बचपन के गलियारे में
यादों का काफ़िला गुजरता है
दो बलिष्ठ बाँहों का सहारा
पल भर में कौंध जाता है
बालों को सहलाती अंगुलियाँ
मीठी नींद सुलाती थीं
तारों तक पहुँचने की ज़िद
जाने कैसे पूरी हो जाती थी
चाह नहीं था कोई ,आस नहीं
पिता के सान्निध्य में स्वर्ग था
सपने नहीं थे ,उम्मीदें नहीं
बरबस मिला प्यार ही  संसार था
और चाहिए भी भला क्या था ?
मेरी रूदन में भूख का अंदेशा
मेरी ख़ामोशी में अनकही  पीड़ा
मिल जाता  था उन्हें सब संदेशा
अभिलाषाएँ पनपीं  जब वयः में
गुरु ज्ञान सा पथ सुगम बनाया
सही - गलत को तौल कर तुला में
जग की रीत बखूबी समझाया
बचपन घुला समय की धार में
जिम्मेदारियां  जब सर चढ़ती हैं
एक अज्ञात शक्ति उनके निवारण को
बा 'के स्मरण मात्र से आ जाती है ।
खँडहर देख महल की भव्यता का
जैसे पता खुद - ब- खुद लगता है
झुर्रियों से ढँकी खोखली परतों में
वैसे बीता दर्प   चमकता है ।
जी चाहता है, भूल कर भाग -दौड़ 
कुछ सुस्ता लूँ बरगद की छांव में
काँपते हाथों से गिरता  आशीष
पहन लूँ समेट कर तावीज में ।