इस ब्लॉग से मेरी अनुमति के बिना

कोई भी रचना कहीं पर भी प्रकाशित न करें।

Thursday 13 November 2014

उनके तसव्वुर में 
---------------------------
मुखर रही नैनों के दर्पण में 
प्रेम की मौन अभिव्यंजना। 
 छुई- मुई  हो जाती अंशुमाला 
शीत के संदेशा में
कुछ ऐसा ही है हाल अपना 
नव जीवन के अंदेशा में 
सिमट जाता है तन अंक में 
मन में होती जब नयी सर्जना।  
 भेजा है जज़्बातों की लड़ियाँ 
हवाओं के सुरमयी संगीत में 
बन जाए मेघों की माला गर 
समझूँ , मैं आयी उनके तसव्वुर में 
अब की जो आ जाओ प्रियवर 
फिर न जाने की बात करना। 
बड़े जतन से संजोया तुम्हें
हृदय की गहरी परतों में  
पतंगा जाने जलने का सुख 
क्या होता है दीपशिखा में 
मिट कर भी नहीं मिटती फितरत 
कैसी यह अविरल कामना ! 



Monday 1 September 2014

मैंने लिख दिया प्रेम
---------------------------

मैंने लिख दिया प्रेम
हवाओं के तरन्नुम में
आँखों की नमी सोख कर
इठला उठी मेघमाला।

मैंने लिख दिया प्रेम
डाल - डाल और पात - पात पर
अब न दावानल रहा ,न पतझड़
बरस उठा सावन।

वह अवर्णित भावों वाला प्रेम
गज़ब का तिलस्मी और
अपूर्व तेजस्वी है।
 समुद्र सा ज्वार इसमें
हवाओं का भार इसमें
परिंदों  का संगीत थामे
जिजीविषा का पर्याय
प्रेम अलौकिक है।

मैंने लिख दिया प्रेम
ब्रह्माण्ड के एक - एक अणु पर
क्षिति ,जल ,पावक, अम्बर, वायु
सिमट गए एक देह में ,और
मेरी सम्पूर्ण चेतना
यायावरी कल्पनाओं में विचर  
कोरे कागज़ पर उतर गयी
 मैंने लिख दिया प्रेम
उसी कागज़ पर
शब्द गीत बन गए। 

Monday 4 August 2014

बरसा दो सावन
--------------------------


कुछ रंग बरसा दो सावन
खिल उठे फुनगी - फुनगी मनभावन
जरा देखा है विस्तृत शाखों ने
सुख की गति खो कर अगन में
विलग हुए थे पात - पात
होकर रुग्ण जीवन समर में
कुछ अमृत बरसा दो सावन
जी उठे मरणासन्न से कानन।
कैसे भूलूँ वह उत्ताप काल
अंजुरी भर के सूरज का
फट - फट कर धरती रोई थी
कहर बरपा था प्रचंड समीर का
कुछ बूँदें बरसा दो सावन
भर जाए धरती का  दामन।
वन - प्रांतर है जीवन - गाथा
हर्ष - विषाद का आना और जाना
ठूंठ खड़ा रहा जो निर्भीक ,निडर
कुसुमाकर का सुख उसने ही जाना
कुछ सुध बरसा दो सावन
आनंद ,उमंग हो सर्वत्र पावन।

Friday 4 July 2014

  कभी फुर्सत में आना 
-------------------------------------

  कभी फुर्सत में आना
मंदिर के चौबारे में बैठ 
अपनी- अपनी ज़िन्दगी बतियाएंगे 
छोटी - छोटी खुशियाँ बाँटेंगे
अपने वर्तमान की खूबियाँ  
बार - बार जतलाएँगे
जैसे ही तुम अतीत कुरेदोगे कि
इस खम्बे के पीछे की 
लुका - छिपी याद है ?
मैं विषय - वस्तु बदल कर 
शब्दों के जाल में तुम्हें फांस लूँगी
कहीं वो बीता पल 
मेरे वर्तमान पर हावी न हो जाए 
और ,जब उठने की बारी आएगी 
तब एक नहीं ,अनेक  बार दुहराएंगे 
"अच्छा ,अब चलते हैं "
पता नहीं कौन किससे इज़ाज़त
 माँगता है ?
फिर ,एक गहरी चुप्पी के साथ 
अपनी - अपनी राह पे चल पड़ेंगे 
एक अनकहा संवाद आँखों में लिए 
बार - बार मुड़कर देखेंगे 
यह अहसास देते हुए कि
तुम अब भी याद आते हो 
मेरा अतीत ,मेरे पास ठहरा हुआ है। 

Friday 6 June 2014

याद आते हैं
----------------------


साल दर साल बीत गए 
घर - आँगन सब छूट गए
 राग नए ,रंग नए 
नव परिवेश में ढल गए। 

याद आते हैं मस्ती के मेले 
ताल - तलैया औ' सावन के झूले 
कच्ची उम्र की पक्की कसमें न भूले 
खट्टे - मीठे वो शिकवे - गिले। 

हाथ बढ़े जब आसमां छूने 

मन में उत्साह भरे दूने 
सूरज की तपिश तब जाना मैंने 
तेवर हवा का पहचाना मैंने। 

अपना नहीं है कुछ भी यहां 

तेरे - मेरे में बंटा है जहां 
रुत शहर की कभी भाई कहाँ 
न शीतल छाँव न परिंदे जहाँ। 

आँगन में उतरती धूप न भूले 

बूँदों की थाप पर नर्तन न भूले 
जार - जार रोए थे मिल कर गले 
आज के बिछुड़े जाने कब मिले। 

अब तो हम प्रवासी पंछी भए 

मौसम संग भी लौट न पाए 
सुख के भंवर में उलझते जाएँ 
बरसाती यादों में बस बह जाएँ।

Sunday 13 April 2014

प्रेम के अर्थ
----------------
पीत  पर्ण फिर हरियाए
वायवी उड़ानों संग हर्षाए
वन - प्रांतर में चली पुरवाई
गंध - गंध सुरभित अमराई
सौगंध पुराने कुछ याद आए
पोर - पोर अमलतासी हो गए।
 किंशुक दावानल सा भरमाए
महुआवी आँखों में शोख छलकाए
अरुणोदय आभा सर्वत्र मुस्काई
अंग - अंग भर तरुणाई
तुम जो ऐसे में मिल गए
मन के अनुबंध हो गए।
देहरी पर बंदनवार सजाए
दिन अभिसार के लौट आए
यायावरी मन में बजी शहनाई
हल्दी रंग में देह लजाई
सपने सारे वासंतिक हो गए
प्रेम के अर्थ व्यापक हो गए। 

Sunday 16 February 2014

मुक्ति का गीत
---------------

वहशियों के नगर में रहना 

है नित काँटों पर चलना 
अब कोई कृष्ण नहीं आएगा
केवल दुर्योधन दांव लगाएगा 
अपनी अस्मत के बन रक्षक
लड़ जाएँ उनसे जो बनते भक्षक 
देख लिया जी कर औरों के लिए 
समय आया अब जीएँ स्वयं के लिए 
हमारे अस्तित्व पर लगता सवाल 
हर सवाल पर उठता बवाल 
ज्वलंत अवरोधों पर बहस छोड़ के 
हम बन गए  विषय विमर्श के 
यक्ष प्रश्नों पर लगा कर विराम 
छद्म वायदों से वो कमा रहे नाम 
कर्ता है अंततः छलता 
विश्वास का पर्दा तार - तार करता 
लगा लो चाहे जितनी ईश्वर से गुहार 
द्रौपदी का चीर अब नहीं पाता विस्तार 
तो अब सक्षम और समर्थ बन जाएँ 
हर विपदा का खुद ही हल बन जाएँ 
तोड़ कर सारी वर्जनाएँ
मुक्ति का गीत गाएँ

Monday 20 January 2014

आई री ऋतु वसंत सखी
-------------------------------------------------
प्रकृति जिस समय अपने चरमोत्कर्ष पर होती है उसी समय जीवन का उदात्त काल होता है। वसंत वनस्पति के संवत्सर तप का अत्यंत मनमोहक पुरश्चरण है। सुरभित पुष्पों के बहुरंगी प्रसाधन से युक्त प्रकृति हमारी अंतश्चेतना का साक्षात्कार ऐसी उदात्त अनुभूतियों से कराती है जो अलौकिक है। प्राणों की अनिर्वचनीय रसदशा की  उदात्तता सौंपने वाली सृष्टि के अजस्र औदार्य का प्रतिफलन है वसंत। प्रकृति के सान्निध्य में ही मानव चेतना का विकास हुआ। क्षितिज के उस पार से वासंती विभव से आप्यायित वसुंधरा को पुलक स्पर्श देने के लिए भुवन भास्कर विशेष ऊर्ज़ा से भरे होते हैं जो मकर संक्रांति के बाद से दिखाई देने लगता है। वसंत की  मादकता धरती के कण - कण में समा जाती है ,इतना मधुमय कि इस ऋतु को मधुमास के नाम से जाना जाता है। "आयी री, ऋतु वसंत सखी " एक साथ आनंद ,उल्लास और कौतुहल पैदा करता है।
ऋतुराज के आविर्भाव में वन - प्रांतर और लता - गुल्म कोमल पत्तों से अपना श्रृंगार करते हैं। वातावरण दुग्धधवल हास्य के झोंके से अनुगुंजित होता दिखता है। प्रमोदिनी सी यामिनी और मधुरहासिनी सी उषा गेहूं की बालियों पर , तीसी की मरकती डालियों और सरसों के पुखराजी फूलों पर अपना प्रभाव छोड़ने लगती हैं। किसलय ,कलिका ,पुष्प और नवलता विहान जैसे अभिनव श्रृंगार वसंत की अगवानी के लिए हैं। अलिकुल का मंडराना ,मलय पवन का झूमना और कोयल की मधुर तान जीवन को सुखमय बनाने के रसायन हैं। पतझड़ की मार से अभिशप्त, झंखाड़ पड़े पर्वतों पर टेसू की टहक लाल सिंदूरी आभा चमकने लगतीं हैं मानो लाल चुनर ओढ़े कोई नई नवेली दुल्हन स्वर्ग से धरती पर पधार रही हो। शीत का प्रकोप झेलती नदियाँ हिमवत थीं ,अब पारे सी पारदर्शी हो रही हैं। शिखिसमूह नर्तन करते हैं। मकरंद और पराग की धूम मची होती है। वसंत सचमुच वसंत है जिसमे केवल आनंद का वास है। इसलिए तो भगवान श्रीकृष्ण ने अपने को "ऋतुनां कुसुमाकरः "कहा है।
  वसंत स्वाभाविक है और प्रकृति अनंत। परिवर्तन बाहरी है  पर मनुष्य और प्रकृति में आंतरिक एकता है। निराला का वसंत बोध ईश्वरीय है। वह प्रकृति के साथ प्राणियों में नवजीवन का संचार करते हैं। "आज प्रथम गाई पिक पंचम "   में सौंदर्य का पहला अनुभव जीवन को पूर्णतः बदल देता है और "गूंजा है मरू विपिन मनोरम "में सौंदर्य की लयात्मक अभिव्यक्ति है।  कविहृदय शायद ही इस ऋतु में मूक बैठे!यह तो महाकाव्य और पुण्य श्लोक रचने के लिए प्रेरित करने वाला काल है। त्रिपुरासुर के विनाश के लिए जब कामदेव ने योगिराज शिव की समाधि भंग करनी चाही तो उसे वसंत की सहायता लेनी पड़ी। अपनी संस्कृति की समृद्धि पर भी एक नज़र डालें। जो वसंत कामदेव का सहायक है वही जीवन में रत होने के लिए मनुष्य को प्रोत्साहित करता है और वही रंग दे वासंती चोला में आत्मोत्सर्ग के लिए भी प्रेरित करता है। वसंत मुक्ति का प्रतीक है   तभी तो कली जब फूल बनती है तब अपनी संकीर्णता  से मुक्ति पा जाती है। वसंत का ध्येय भी यही है। यह जीवन ,मुक्ति और सौंदर्यानुभव तीनों रूपों में लोक को समर्पित है।

                 वरद साहित्य और संस्कृति की वरदायिनी वागीश्वरी सरस्वती वसंत की शोभा में चार चाँद लगा देती है। आम्रमंजरियों का पहला चढ़ावा श्वेत पद्म पर विराजमान सरस्वती को अर्पित होता है ताकि देश की संतति परम्परा  आम्र वृक्ष की शाखाओं  की तरह अपने यश का चतुर्दिक विकास करे। यह काल फाल्गुन और चैत का काल है। फाल्गुनी पूर्णिमा के दिन आनंद और उल्लास का महोत्सव प्रेम - मिलन एवं विरोध - विस्मरण के मधुमय आमंत्रण का पर्याय पर्व होली के रूप में  मनाया जाता है।    प्रकृति यूँ तो स्वयं में सर्वोच्च गुरु है पर आनंद की स्रोतस्विनी सभी प्राणियों में कहाँ उमड़ती है ? भौतिकवादी युग में तो कदापि नहीं। कुसंस्कारों के जीर्ण - शीर्ण पत्तों को त्याग कर ,नवीनता और प्रगतिशीलता के नव किसलयों व पल्लवों से हम अपना श्रृंगार कर सकें तभी वसंत उत्सव बन कर आता रहेगा। फिर तो काल चक्र भले वर्ष में एक बार इसका रसास्वादन कराये पर मानव का प्रयास  इसके उदात्त गुणों को अपना कर आजीवन सौंदर्ययुक्त  रहेगा।  

Sunday 5 January 2014

नया साल  - नया संकल्प
-------------------------
भरेंगे खुशियों के रंग
---------------
पृथ्वी का सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाना  यानि समय के चक्र का घूमना। इस अनवरत चलने वाली प्रक्रिया को हमने महीनों और वर्षों में बाँट दिया। आवश्यक भी था ताकि प्रकृति और मौसम की अदाओं को उनकी  अवधि से जाना जा सके। काल खण्डों का ज़खीरा एक निश्चित अवधि में नए साल का तोहफा हमें दे जाता है। बारिश अपनी सिसकती बूंदों के साथ ज्यों ही विदा हुआ शीत ने पांव फैलाना आरम्भ कर दिया। फिर लम्बी उबाऊ रात ,मानों जाते - जाते भी जाने का मन हो। रात की स्याही का एक कतरा  भोर की बेहद नाज़ुक सफेदी के साथ मिलकर अजीब सम्मोहन पैदा करता है। यही है वह संधिकाल जब मेरे सामने के विशाल अमलतास और अशोक की डालियों में ऋत्विज सा प्रभाती  गान  करता खगदल उड़ने को व्याकुल हो जाता है। भोर होने का   आभास अलौकिक है। मैं पिछले बीस सालों से उगते सूरज का गवाह बन उसकी अक्षुण्ण ऊर्ज़ा को महसूस कर रही  हूँ। साथ होते हैं कुछेक सुबह - सुबह टहलने वाले लोग ,वरना ज्यादातर  लोग उस समय निद्रा देवी की गोद में ही होते हैं।  जिस दिन आलस करती हूँ ,सारा   दिन बोझिल   होता  है। दिसंबर आते - आते कुहरे की चादर इतनी देर तक तनी होती है कि सूर्यदेव का दर्शन सम्भव नहीं होता। फिर भी क्या दिनचर्या रूकती है ?नहीं ,भले ही काम कुछ देर से शुरू हो ,पर होता ही है। तो फिर क्यों इस  नए साल के उमंग में कुछ ऐसा संकल्प लें जो नीरसता में भी सरसता का अनुभव करा दे। ऐसा तभी सम्भव है जब हम जीवन से प्यार करना सीख जायेंगे। सभी इंद्रियों का सचेतन अवस्था में होना मानव जीवन की एक बड़ी उपलब्धि है। आइए,इस उपलब्धि का हर्ष मनाएँ।जीवन के अनुराग और विराग को पूर्णतः भोगें। इस नितांत सत्य से हम  मुँह नहीं मोड़ सकते कि किसी प्यारे की मौत या बीमारी से जूझता कोई अज़ीज़ हमें तोड़ देता है। पर इस स्थूल शरीर से मोह करना भी तो एक भ्रम है। जितनी जल्दी इस भ्रम को समझ जायेंगे , निराशा हम पर हावी नहीं होगी। समय एक मरहम का काम करता है जो ज़ख्म की पीड़ा भुलाकर खुशियों की सीपियाँ बिखेर देता है। उन सीपियों को झोली में भरने का  संकल्प लें।
 नया साल  - नया संकल्प। बच्चे एकेडेमिक परफोरमेंस सुधारने का संकल्प लेते हैं तो गृहिणियाँ वजन कम कर के नीरोग रहने का। कोई समय से ऑफिस पहुँचने का संकल्प लेता है तो कोई अपनी कार्य - प्रणाली सुधारने का। संकल्प - विकल्प और तार्किक क्षमता में प्रकृति का सबसे सबल प्राणी मनुष्य है। बीते वर्ष का विश्लेषण करना वह जानता है। क्या खोया ,क्या पाया ?क्या अधूरा रह गया ?क्या सोचा था और क्या   हो गया ?आदि। संकल्प लेना  एक चेतनशील प्राणी का लक्षण है और उसका क्रियान्वयन करना सजग होने का प्रमाण। कुछ लोग संकल्प तो बड़े - बड़े लेते हैं पर उनका पालन करने में पिछड़  जाते हैं। इसलिए संकल्प भी अपने सामर्थ्य और साधन के अनुसार लेना चाहिए जिसे पूरा करना हमारे वश में हो अन्यथा  हताशा हाथ लगती है। फिर जीवन की खुशियाँ पराई हो जातीं हैं।   गौरतलब है कि उद्यमी ही लक्ष्य तक पहुँच पाते हैं और जब लगे कि हमने अपनी मंज़िल पा ली है तो अपने आप को शाबाशी दें ,जश्न मनाएं। खुश होने की किसी  भी स्थिति में समझौता नहीं करनी चाहिए।
घर की सुख - शांति बनाये रखने  का और नौकरी के  उच्चतम  शिखर तक पहुँचने का  संकल्प तो आपने हरेक साल लिया है। चलिए, उनसे इतर इस बार  कुछ ऐसा संकल्प लें जिसमे प्रकृति और पर्यावरण का हित हो तथा परोपकार की  भावना निहित हो। अपने घर की आया के बच्चे को एक घंटा  निःशुल्क  पढ़ा दें ,अनपढ़ को अक्षर ज्ञान दें ,प्रतिफल लौट कर अवश्य आएगा। अपने बंगले के वीरान कोने में अपने हाथों से पौधारोपण करें। जब वृक्ष बन कर वह फूलेगा - फलेगा ,यकीं मानिये बिलकुल वैसी ही प्रसन्नता होगी जैसी अपने बच्चों को बढ़ते देख कर होती है। अपने जीवन काल में पेड़ लगाने का संकल्प बहुत नेक है। इससे पर्यावरण की रक्षा होगी और आने वाली पीढ़ियों को एक हरे - भरे  ग्रह का सौगात मिलेगा। पतझड़ में भी आपको सुंदरता दिखाई देगी क्योंकि तब तक आप जान चुके होंगे कि कंकाल सा प्रतीत होता तरु भले ही कुछ समय के लिए निराश कर दे पर यह तो जीवन - चक्र है। पतझड़ में यदि लता पल्लवन  हो तो क्या वसंत मोहक लगेगा? आखिर जिस रोशनदान से रश्मि आती है ,उसी के पीछे तो रजनी भी गहराती है।तो ,खुश रहने का संकल्प लें। हर दिन एक उत्सव की भाँति हो। याद करें ,जब भैतिकवादी सुख - सुविधाओं का जुनून नहीं पनपा था तब घर में एक फ्रिज़ या टेलीविज़न आने पर भी मोहल्ले वाले उसे देखने आते थे। कितने अच्छे थे वो दिन। छोटी - छोटी खुशियाँ जीवन में रंग भरतीं थीं आज हम बड़ी खुशियों का इंतज़ार करते हैं जो मृगतृष्णा के अलावा और कुछ नहीं। बड़ी खुशियों के इंतज़ार में जीवन की शाम हो जाती है फिर इनका उपभोग करने के अवसर क्षीण पड़ जाते हैं। कुछ बिंदुओं पर ध्यान दें तो बहुत हद तक जीवन में खुश रहने के मूलमंत्र हम पा सकते हैं -
. जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाएँ। अपने मन में नकारात्मक विचार आने दें। जैसे ही ईर्ष्या ,द्वेष या बदला लेने की भावना आने लगती है , अपने साँसों की आवाजाही पर ध्यान केंद्रित करते हुए तेज क़दमों से चलें।
. हर आदमी का एक वज़ूद होता है भले ही वह पद - प्रतिष्ठा में आपसे छोटा हो। उनका मज़ाक हरगिज़ उड़ाएँ।
. ख़राब से ख़राब चीज़ों में भी अच्छाई ढूंढे।
. ईश्वरीय सत्ता पर भले ही विश्वास हो ,फिर भी जीवन की अनिश्चितता को सदा याद रखें।
. संवेदनशील बनें तभी आप फूलों की सुंदरता  ,पंछियों का कलरव ,ओस के बूँदों की शीतलता और बच्चों की तुतली बोली का आनंद उठा  पाएंगे।
. प्रण कर लें कि दिल में किसी प्रकार के  कलुषित विचार को नहीं पनपने देंगे और स्वस्थ दिमाग से कुछ अच्छा सीखने की राह पर चलेंगे ,तो कोई बाधा राह से डिगा नहीं पायेगी।
एक दिन मैंने आठ - नौ साल के एक बच्चे से कहा ,"पिछले साल वाली  गलतियाँ नए साल में नहीं दुहराना ,प्रण करो। " बच्चे ने मासूमियत से कहा ,"जी मैम  , इस बार नयी गलतियाँ करूँगा। " बच्चे ने एक  शाश्वत सच को याद दिला दिया ,"टू ऐर इज़ ह्यूमन। " गलतियाँ करना तो स्वाभाविक है पर बार- बार एक ही गलती हो इसे हमे ज़रूर देखना चाहिए क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध हमारे स्वभाव और जीवन - शैली से जुड़ा है जो हमे विषाद की स्थिति में ला सकता है।
याद कीजिये ,अंतिम बार कब आपने  बालकनी से ढलते सूरज का नज़ारा आँखों में क़ैद किया था ?कब बिटिया का निकर बदलते समय उसके पैरों को गाल से टिकाकर  रोमांचित हुए थेगली में खेलते बच्चों की  फ़ौज़ ने आपके आँगन में आयी  गेंद  माँगा और आपने प्यार से झिड़कते हुए एक बॉलर की  तरह उनकी ओर गेंद फेंका ,कब ? आपके ललाट पर  गिरती हुए ज़ुल्फ़ों को देख कॉलेज के  दिनों में कसा हुआ एक जुमला क्या अब याद आता है ? नहीं न। दौड़ -भाग  और  तनाव  भरी  ज़िन्दगी में हँसने के लिए वक़्त नहीं। तो , इस साल  पत्नी के साथ उन स्थानों को जाएँ जहाँ  आप हनीमून के लिए गए थे। तब और अब के परिवर्तन आपको गुदगुदाएंगे। अपने सच्चे मित्रों के साथ कुछ वक़्त गुज़ारें जो एक - दूजे के हमराज़ थे और बीती बातों को याद कर खूब ठहाके लगाएँ। बच्चों को लेकर लांग राइड पर जाएँ और हर वह काम करें जिसको करने में आपने खूब आनंद उठाया था ,मसलन बारिश में नहाना ,गुलेल मार कर टिकोले तोड़ना ,ठेले पर के गोलगप्पे खाना आदि एक बार ठान लें तो खुश रहने के अनेक रास्ते खुद खुद निकल आयेंगे।

संकल्पों का बाज़ार गर्म है। आइये ,हम भी नए साल में एक ऐसा रिज़ोल्युशन लें जो अब तक नहीं लिया यानि जीवन की अवस्था चाहे जैसी भी हो हम खुश रहने का प्रयत्न करेंगे। जीवन को एक उत्सव मान कर एक - एक पल को जीयेंगे।खुशियों   का सैलाब अपनी चपेट में हमारे दुखों  को बहा ले जाए और हम नित नयी उर्ज़ा से भरे रहें।