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Thursday 28 March 2013


 मुझे थाम लेना ।


पतझड़ सी वीरानगी
नस - नस में भर जाती 
नवसृजन की आस है तुमसे 
तुम वसंत बन जाना ।
घने बादलों से जब -जब 
सूरज सुनहरा ढंकता है 
विकल मन बारम्बार पुकारता 
तुम संबल बन जाना ।
दुबिया पर पड़ी 
ओस की निरह बूंद ही सही 
आत्मसात करने मुझ को 
तुम दिवास्पति बन जाना ।
जीवन राग सुरीला 
शब्दों की लड़ियाँ गर तुम्हे पिरोये 
मैं रागिनी बावरी सी गुनगुनाऊं 
वैसा गीत बन जाना ।
अटूट बंधन ,अमर प्रेम हमारा 
जीवन साथी हम रिश्ता  जन्मों का  
शिखा बन सुबहो शाम जलूं 
तुम मेरे  दीप बन जाना ।
तुम काया मैं साया 
तुम धूप मैं ताप 
मैं बहती धारा
तुम कलकल निनाद बन जाना ।
बिन तुहारे मेरा वजूद नहीं 
तुम हो तो मैं हूँ 
रोज़मर्रा की बेशुमार बातों में 
यह बात भूल न जाना ।
जीवन के झंझावात में 
जो घिर जाऊं अनायास 
पास आकर मेरे 
तुम मुझे थाम लेना ।

Friday 22 March 2013


     तुम बन जाओ मोहना


हवाओं की मध्यम-मध्यम तान 
विहगों ने छेड़ा सुरमयी गान 
दूर प्रवाहिणी कर रही शोर
गुलाबी किरणों में लजा रही भोर
प्रणय काल बार - बार नहीं आता 
मैं बन जाऊं गीत ,तुम बन जाओ प्रगाता । 
कमलिनी बिखेरती खिली - खिली मुस्कान 
खो रहे हैं होश ,भ्रमर कर रसपान 
हिमाद्री पिघल रहा किरणों की गर्मी से 
दो दिल मिल रहे साँसों की नरमी से 
क्षितिज पर धरा - गगन मिल रहे चुपचुप 
मैं बन जाऊं पुष्प ,तुम बन जाओ मधुप ।
रजनी शरमा रही सितारों के पट से 
चाँद भी खूब रिझाता बादलों की ओट से 
चांदनी पिघलती रही चाँद निकला अंक से 
कैसी है यह अगन बुझती नहीं सालोंसाल से 
अलगाव का दर्द विरहगीत में है ढलता 
मैं बन जाऊं शब्द ,तुम बन जाओ रचयिता ।
यमुना के तीर पर बरगद की छाँव हो 
गोपियों संग रास रचाता प्रेम का गाँव हो 
अधरों से लगा लो प्रिय वंशी बना कर 
नैनों में ही चाहे सजा लो अंजन बना कर 
मनमयूर नाच उठे सुन मेघ की गर्जना 
मैं बन जाऊं राधा ,तुम बन जाओ मोहना ।

Saturday 9 March 2013


 कोई फाग रंग चढ़ा रहा


वसंत का आगमन क्षणिक 

सुख का आवरण चढ़ा गया 
चंचल मन बेकाबू कर 
वासंती बयार बहा गया ।
कोमल किसलय खिलते बाग़ में 
कोमल स्वप्न दिखा गया 
मन के आँगन में दीप जलते 
कोई प्रेम मधुर छलका गया ।
पलाश टहक रहा शीर्ष पर 
अमलतास मनोरम खिल रहा 
सरसों गिरती मदपान कर 
कोई फाग रंग चढ़ा रहा ।
तन पे चढ़े  न कोई रंग भले 
मतवाला मन गीला होता रहा 
कोयल विकल छेड़ती कूक
बौर आम का तड़पाता  रहा ।
शीतोष्ण का मिलन काल यह 
कण - कण में प्रीत छलकाता रहा 
नवजीवन का प्रणेता बन 
आशा के बीज बोता रहा  ।

Wednesday 6 March 2013


जाने कैसा यह रोग है

बंद दरवाजों के अंदर
सहमे से इंसान हैं
रोशनदान से आती मंद हवाओं में
डूबती हुई साँस है
खिड़कियों के झरोखों से झाँकती
दहशत भरी आँखें हैं
जाने क्यूँ इस शहर की हवा बदल गयी
परायों की कौन पूछे
अपनों की नीयत बदल गयी
माथे पर  बल पड़ी रेखाएँ
कभी सीधी नहीं होती
मन का रोम - रोम
जाने किस आतंक में घर गया है
महफूज़ नहीं अस्मिता औरतों की
हिंसा और दुराचरण है कहानी रोज़ की
रात के स्याह की कौन पूछे
दिन का उजियारा भी दागदार है
जाने क्यों हर शख्स परेशां है।
नकाबों में असलियत छुपाते हैं
एक चेहरे का बहुरूपिया बनाते हैं
आतंक के बादल छटते नहीं
शोर है तो केवल दबंगों के
आम आदमी कौड़ियों के भाव बिकते
जाने कैसा यह बदलाव है
भूल कर भाई- चारे का नाता
खो कर माँ - बहनों का रिश्ता
हर कोई अपने में मगरूर है
अपनी मनमानी को हथियार बना
खोज  रहा नया शिकार है
तभी तो आज मानवता शर्मशार है।
जन  का तंत्र गौण हुआ
राज करते बाहुबली हैं
गुलामी के साए में विचार पलता है
कलम का ज़ोर चलता नहीं
जोश और जुनून उमड़ता नहीं
जाने कैसा यह रोग है।
चेतना लुप्त , संवेदना सुषुप्त है
किसी मसीहा का क्यों इंतजार करें
गुमनामी का सेहरा हटा कर
आवाज़ आक्रोश का बुलंद करें
अपने मर्ज का स्वयं इलाज करें।