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Tuesday 31 March 2015

विदाई 
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रजनीगंधा के सेज 
द्वार पर वंदनवार 
मेहमानों की आवाजाही 
रिश्तेदारों की बधाइयाँ
और माँ के काम 
सब कुछ तो कल की भांति हैं।  
पर ,नहीं है महमह सुगंध 
और वंदनवार की चमक 
मेहमानों में जाने की जल्दी है। 
बधाइयों में महज दिलासा 
और औपचारिकता की खानापूर्ति है। 
माँ  और पिताजी  की रोज़ की बकझक 
मौन संवाद में बदल चुकी है।  
इंतज़ामकर्ताओं का हिसाब करते हुए 
दोनों बीच - बीच में कोरों पर जमा 
नमक झाड़ लेते हैं।
 पिता के चेहरे पर आज 
शिकन नहीं ,सुस्ती है।
 काम यथावत चल रहा है 
फिर भी एक वीरानी है ,उदासी है 
आँगन में ,बगिए में  ,घर में।  
कल तक सब की चिंता बनी हुई बेटी 
आज विदा हो गयी है। 

Tuesday 3 March 2015

बिन तुम
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जीवन के सब रस सूख चुके हैं
जब से मीत हमारे रूठ उठे हैं।
खिलता नहीं मधुवन वसंत में
अमराई की छाँह है  वीरानी
ताल - तटिनी के तीर में
ढूंढता हूँ उसकी निशानी
सब जतन करके हारे
अनसुनी रह गयी कहानी
गुज़श्ता कल आँखों में भर
दिन पहाड़ से बीत रहे हैं।
मन पखेरू बिन ठौर का
उजड़ गया ज्यों रैन - बसेरा
भूल कर मनहर जीवन संगीत
भटक रहा साँझ - सवेरा
पूनम की रात आती - जाती
छँटता नहीं पर मन का अँधेरा
निष्पंद ,निरर्थक सी यह काया
 जाने क्यूँ हम जी रहे हैं !