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Monday 26 August 2013

महात्मा कैसे कहलाऊं

प्रगतिशील व्यक्ति में दो गुण अवश्य होते हैं -- निर्भयता और मौलिकता (नयापन )। निर्भयता  उसे तमाम अवरोधों से लड़ने की शक्ति देता है ।यह  तो तय है कि प्रगतिशील लोगों के दुश्मन भी अनेक होते हैं , घर में भी और बाहर भी,क्योंकि किसी की तरक्की लोगों को रास नहीं आती है ।  निर्भयता के साथ आत्मविश्वास जुड़ा होता है क्योंकि यही आत्मविश्वास अँधेरे में उजाले की लौ जलाए रखता है।ऐसे  लोग सदैव ही अपने कौशल और साहस से अवसर को प्राप्त करते हैं। शक्ति और इच्छा के द्वारा अवसरों को सर्वोत्तम सफलता तक पहुँचाना उनकी मौलिकता और निर्भयता के कारण ही है। परन्तु एक प्रगतिशील व्यक्ति केवल अपनी प्रगति  से ही संतुष्ट नहीं रहता है ,वह समाज की उन्नति के लिए भी प्रयत्न करता है नहीं तो वह स्वार्थी कहलाएगा। वैसे भी मानसिक साधना के तीनों सोपानों स्वाध्याय ,सत्संग और सेवा में सबसे ज्यादा महत्त्व सेवा का है। इसे सभी कर सकते हैं - अकेले भी और सामजिक रूप में भी।  मौलिकता वह आवश्यक शक्ति है जो आपके अन्दर ही छिपी है ।आप बाहरी  सहायता  से सफल होंगे- यह भ्रम जितनी जल्दी दूर हो जाए ,उतना ही अच्छा है ।बाहरी सफलता में कोरी प्रंशसा छिपी रहती है जो मनुष्य को आत्मकेंद्रित बना देती है और एक बार "मैं "," मुझे " और" मेरा" की लत  लग जाए तो फिर मनुष्य पतनगामी  हो जाता है।  जब अन्य गुण साथ छोड़ जाते हैं तब अध्यवसाय अर्थात निरंतर अपने कार्य पर अड़े रहना ,आगे बढ़ता है और व्यक्ति को विजयी बनाता है। मौलिकता निरंतर अभ्यास से बनी रहती है। यही सृजनशीलता है जो मनुष्य को कर्मवादी बनाता है। नेपोलियन और रावण में यही अंतर था। रावण सबल था पर संकल्पशक्ति से कमज़ोर ,नहीं तो स्वर्ग से धरती तक सीढ़ी बनाने का ख्वाब रह नहीं  जाता। नेपोलियन निर्भय होने के साथ - साथ संकल्प का भी पक्का था ,इसलिए तो हाथ में स्वयं से रेखा बना कर विश्व - विजय के लिए निकल पड़ा। जब तक ये दोनों गुण मौजूद हैं स्व उत्थान के साथ पर कल्याण भी  होता  रहेगा।  एक बात याद रखनी चाहिए कि प्रत्येक आपत्ति शाप नहीं होती। जीवन की प्रारंभिक आपत्तियां बहुधा आशीर्वाद होती हैं ।जीती हुई कठिनाइयां न केवल हमें शिक्षा देती हैं ,बल्कि वे प्रयत्नों से हमें साहसी बनातीं हैं ।इस सन्दर्भ में सुकरात की जीवनी सटीक है ।सुकरात की पत्नी क्रोधी स्वभाव की थीं जो अक्सर उन्हें अपशब्द बोलतीं रहतीं ।एक बार उनके एक शिष्य ने कहा कि उनकी पत्नी उनके योग्य नहीं। सुकरात बोले ,"नहीं यह गलत है। यह ठोकर लगा - लगा कर देखती रहती है कि मैं कच्चा हूँ या पक्का ,यानि मेरी सहनशक्ति कितनी है ?अगर मैं भी उसकी तरह बन जाऊं तो फिर महात्मा कैसे कहलाऊं ?"
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Saturday 17 August 2013

 मन - वीणा की झंकार

चाँद छलकता बूंद - बूंद 
आसमां के पैमाने से ।
मिलन देहरी पर ठिठकी 
सुन नाम मनुहार के 
अलसाई रजनी छिटकी 
कचनार के बयार से 
खिल उठी प्रकृति प्यारी
 मन - वीणा की झंकार से ।
उर सरवर  उमड़ पड़ा 
नेह के मीठे पावस से 
सूना आँगन गूंज पड़ा 
प्रीत के मंगल - गान से 
ताम्बाई बदन में भोर लजाई 
अरुणोदय के बहाने से ।
चिंदी - चिंदी लम्हे 
शून्य को भरते 
वैरागी मन बहे 
जिधर अनुराग बीज झरते 
जीने की चाह  जाग उठी 
एक अशरीरी अहसास से ।

Monday 12 August 2013

                            स्वतंत्रता का मोल                                          

स्वतंत्रता का सुख क्या होता है ?यह उससे पूछो जो वर्षों से काल - कोठरी   में बंद है या फिर पिंजरे में बंद पक्षी जिसके पंख हैं पर परवाज़ नहीं ।  वर्षों से गुलामी की जंजीर में जकड़े भारत देश के लिए स्वतंत्रता उस उगते सूरज के समान थी जिसने कभी अस्त होना नहीं जाना ।आजादी के बाद का दौर अनेक समस्याओं से पूर्ण था लेकिन स्वतंत्रता का जोश उन सब के निवारण के लिए पर्याप्त था ।एक अखंड भारत का निर्माण जिसमे भाषा - भूषा ,और ऊँच - नीच के भेदभाव का कोई स्थान नहीं था। नेहरु ,गाँधी ,पटेल और अंबेडकर के साथ - साथ इनके समकक्ष दूसरे सेनानियों और नेताओं के प्रयास से स्वतंत्र भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न राष्ट्र में तब्दील हुआ ।संसार के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश की संरचना अद्वितीय तो थी ही ,अब उसकी राष्ट्रीय  एकता भी दूसरों  के लिए मिसाल बन गयी ।ईद - दीवाली  ,हिन्दू - सिक्ख  और चर्च - मंदिर में कोई अंतर नहीं ।यह मज़बूत गठन ही बाह्य ताकतों से लड़ने वाला एक अक्षुण्ण मिसाइल है ।देश की गरिमा उसके अप्रतिम सौन्दर्य के साथ - साथ मानवीय क्षमताओं से पूर्ण उस सम्पदा का परिणाम है जो पत्थर को भी हीरा बना दे और सूरज को भी मुट्ठी में क़ैद कर ले ।
                           आंतरिक एकता देश की आत्मा है स्वतंत्रता की ६६ वीं वर्षगाँठ मनाते  समय उन चुनौतियों को भी याद रखना है जो समय - समय पर हमारी परेशानियों का सबब बनतीं हैं ,मसलन कश्मीर में पाकिस्तानियों की दखलंदाजी ,चीनी सैनिकों का उपद्रव ,झारखण्ड के नक्सालियों  का आतंक ,तेलंगाना राज्य की मांग और प्राकृतिक जलप्लाव से उभरा  संकट ।आर्थिक अस्थिरता और मुद्रा- स्फीति भी बड़ी समस्या है ।देश्वासी और प्रशासन समस्याओं से वाकिफ हैं और उनके निदान के लिए प्रयत्नशील भी ।आज का दिन वीर सेनानियों के बलिदानों को याद करने का है ।कुछ देर के लिए समस्याओं को भूल कर उन वीर सेनानियों को हम नमन करते हैं जिन्होंने सरफरोशी की तमन्ना का प्रण किया और आने वाली पीढ़ी को स्वतंत्र राष्ट्र का उपहार दिया। अब तो प्रण हमें करना है ,"ए जननी जन्मभूमि ,सेवा तेरी करूँगा ,तेरे लिए जिऊँगा ,तेरे लिए मरुंगा ।हर जगह ,हर समय में ध्यान तेरा ही होगा ,निज देश और राष्ट्र का भक्त बना रहूँगा। "
                              गत वर्षों में देश ने प्रत्येक क्षेत्र में जैसे कृषि ,उद्योग और परमाणु  क्षेत्रों  में अविश्वसनीय    सफलता  के आँकड़े  दिए हैं पर उन्हें मंजिल नहीं मान लेना चाहिए ।विकास एक सतत प्रक्रिया है जिसमे पूर्ण - विराम के लिए कोई जगह नहीं है ।राष्ट्र - हित के लिए चौकी पर तैनात माँ के वीर लाल   अपना बलिदान देते रहते हैं। वे सजग प्रहरी हैं इसलिए हम सुख की नींद सोते हैं ।उनकी तरह निःस्वार्थ भाव से अपने - अपने कार्य - क्षेत्र में हमें आगे बढ़ना है ।हमारा अखंड और खुशहाल भारत हमारे सम्मिलित प्रयासों का ही प्रतिफल है। रोबर्ट फ्रॉस्ट की पंक्तियाँ हर युग में प्रेरणा स्रोत हैं ,"कठिन सघन वन और अँधेरी ,मूक निमंगम छलना है ,अरे अभी विश्राम कहाँ ?,बहुत दूर हमें चलना है। बहुत दूर हमें चलना है। "

Wednesday 7 August 2013

अहिंसा के तीन रूप

शाब्दिक तौर पर किसी को मारने की इच्छा हिंसा कहलाती है और ऐसी इच्छा का न होना अहिंसा कहलाता है ।अहिंसा के तीन रूप हैं जो उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। किसी को अपने शरीर द्वारा कष्ट न पहुंचाने की इच्छा न करना शारीरिक अहिंसा है ।वाणी से कष्ट की इच्छा न करना वाचिक अहिंसा है और किसी का मन से भी बुरा न चाहना मानसिक अहिंसा है। अतः हमें मनसा ,वाचा और कर्मणा तीनों रूपों में हिंसा से  बचना चाहिए। आज के युग में अहिंसा का मतलब शारीरिक हिंसा न करने को ही लिया जाता है क्योंकि यह प्रत्यक्ष रूप में दिखाई पड़ता है। शरीर पर लगे चोट तो फिर भी मिट जाते हैं पर वाचिक हिंसा शायद सबसे ज्यादा आघात करता है क्योंकि यह मन पर वार करता है। मीठी वाणी का इसलिए बहुत महत्त्व है ।एक छोटी सी घटना सुनाती हूँ।एक  व्यक्ति  को वरदान में तीन गोले मिले जिसका इस्तेमाल वह तीन बार ही कर सकता था।   ।वह ख़ुशी - खशी अपने घर में घुस ही रहा था कि  उसका बेटा आकर उससे लिपट गया। इस अचानक के प्यार में एक गोला  गिर गया।  वह गुस्से में डपटा ,"तेरी आँखें नहीं हैं। "इतना कहते ही बच्चे की आँखें चलीं गयीं। व्यक्ति आसमान से गिरा ,उसे दूसरे  गोले की याद आयी। झट एक गोला  ज़मीन पर गिरा कर बोला  ,"मेरे बेटे के चेहरे पे आँखें लग जाएँ। "देखते ही देखते बच्चे के चेहरे पे कई आँखें निकल गयीं। उस भयानक सूरत को देख कर उसे झट तीसरे गोले की याद  आयी। उसने उसे भी फोड़ा और वर माँगा कि  बेटे का चेहरा केवल  दो आँखों के साथ  सामान्य हो जाये। इस तरह से मुश्किल से कमाए उसके तीनों वर वाणी  की असंयमता के कारण नष्ट हो गए।वाणी  किसी मनुष्य के अंतर को जानने का सीधा सा माध्यम है। जैसी सोच ,वैसी बोल। यह तो   सीधी सी  बात है कि  जो वाणी का अच्छा होता  है ,उसे सभी पसंद करते हैं। विद्यालय  ,ऑफिस ,व्यापार हर जगह यह लागू होता है। इस हिंसा को रोकने के लिए बस इतनी शपथ लेनी है कि  हम भले कुछ न बोलें   पर कड़वा न बोलें । यह शपथ गुस्से पर काबू करना भी सिखा देगा और बेबुनियाद बातों पर विश्वास करना भी छुड़वा  देगा। यानी एक वृत्ति  पर विजय पाना  कई वृत्तियों पर विजय पाने जैसा है।     हमारे मन के तार दूसरे लोगों ,यहाँ तक कि पशु - पक्षियों के तार से भी जुड़े रहते हैं इसलिए जब हम किसी के लिए बुरा सोचते हैं तो उसके मन में भी हमारे लिए दुर्भाव पैदा हो जाता है ।यदि हमारा मन किसी के लिए सद्भावयुक्त है तो उसके मन में हमारे प्रति कोई द्वेषभाव भी है तो वह समाप्त हो जाता  है ।महात्मा आनंद स्वामी ने अपनी जीवनी में कहा है कि जब वे स्वामी गंगागिरि के सान्निध्य में तप कर रहे थे तो एक शेर को उनकी ओर आते देख घबरा कर स्वामी जी को सचेत करना चाहा ,पर स्वामी गंगागिरि तटस्थ थे ।जब शेर उनके पास गया तब उन्होंने उसकी पीठ सहलाई और प्यार किया ।शेर परे चला गया ।अहिंसा को इसलिए परम धर्म कहा गया है जिसमे सब बैर ,भय और आशंका दूर हो जाते हैं ।