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Tuesday 18 December 2012


               बेटियाँ 
उस घर आतीं भर - भर खुशियाँ 
जिस घर खिलतीं  फूल सी बेटियाँ 
जहाँ गूँजती मासूम  किलकारियाँ
वहाँ अवतरण को ललकती  देवियाँ। 
बाग़ की गुलाब है वो आँगन की तुलसी 
चन्दन की खुशबू है वो सुन्दर तितली सी 
बाबुल की प्यारी, होती माँ की गहना 
मकान को घर बनाती ,ऐसी भाई की बहना ।
उस घर में चमकता भाग्य - सितारा 
जिस घर की बेटियाँ हैं आँखों का तारा
कोने - कोने में लाती प्रभात उजियारा 
पूजा की पुष्प है ,रोशन उनसे गलियारा ।
भोर की ओस है वो चाँद की किरण धवल 
हवा का झोंका शीतल हर ऋतु मानिंद नवल 
समय हो जब प्रतिकूल, वह बनती सुखद छाया 
दुर्दिन होते अनुकूल ,जब बरसती सुलभ माया ।
उस घर में बहती स्नेह सरिता अनवरत 
जिस घरमें पलती बेटियाँ पूत सी सतत 
पतवार है नाव की वह , ना कंटक ना शूल 
वह है सृष्टि ,सृजक वही ,ना रेत ना धूल ।

Thursday 13 December 2012


मुहब्बत :एक अहसास ,कई भाव 
         ( १)
मुहब्बत मेघ है 
पानी की बूंद डबडबाती है 
और बिन टपके 
आसमां को झील बना देती है 
वही झील जिसकी परछाई अक्सर 
मेरी आँखों में दिख जाती है ।
                  
           (२)
 मुहब्बत  बारिश है 
एक - एक बूंद हथेलियों से 
टकरा कर गिर जाती है 
उन्हें मुट्ठी में बंद करने की ललक में 
बदन तर - बतर हो जाता है 
पर ,अंजुरी खाली रह जाती है ।

           (३)
मुहब्बत लहर है 
वही उन्माद ,वही जुनून
उठना - गिरना और बिखरना 
फिर भी न बुझती  अगन  
साहिल मिलन की आस में 
दिन -रात संजोती लगन ।

Tuesday 20 November 2012


               पतझड़

भूरी ,पीली - पीली ,कुछ सुनहरी 
मटमैली ,कहीं टंगती ,कहीं झरती 
हल्दी सी रंगत वाली  प्रकृति 
सिंगार के पहले भी इतराती ।
वो बदरंगी पत्तियाँ सूखती हैं 
पतंग सरीखी नभ में तरती हैं ।

दुःख के बादल जब घिरते हैं 
हम उसे पतझड़ की संज्ञा देते हैं 
पतझड़ अपने साथ ढोता है 
ग्लानि,गम ,उदासी ,उत्ताप ।

पर ,इस वीरानगी में भी जीवन्तता है 
बिछ जाती हैं सुखी पत्तियाँ राहों में 
कुचल कर पैरों तले
चरमराने की विशिष्ट ध्वनि 
मचाती है वीरानों में ।
उड़ती है हवाओं संग जब 
जाने किस व्यथित हृदय की पाती बन 
पहुँच जाती पिय पास ,जहां न जाए तन ।

सच ,खोने के बाद ही है  पाने का सुख 
रिक्तता में होती समग्रता 
सुख की अहमियत है तभी 
जब दुःख  कुठराघात करता ।
पतझड़ होता है बेरौनक 
वसंत तभी लगता मनमोहक ।
पतझड़ केवल ऋतुचक्र नहीं 
वह जीने की कला है 
जीवट है ,जिजीविषा प्रबल कर 
एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माता है ।

Monday 5 November 2012


 दीवाली
तम का  नाश करने वाली
प्यार की ज्योत जलाने वाली
दीवाली है बड़ी अलबेली
रोशन करती दीपों की अवली ।
अमावस की रात होती काली
आसमाँ के पैबंद आज खाली
सितारों की चादर ओढ़े धरा
जगमग- जगमग करती वसुंधरा ।
दूकानें सज गयीं खील -बताशों की
आ रही सवारी लक्ष्मी - गणेश की
पटाखों की आवाज़ गूँजने लगी
पकवानों की खुशबू उड़ने लगी ।
भाषा - भूषा की दीवारें पाट कर
दीवाली मनाएँ हम गले मिलकर
हर दिल अज़ीज़ यह मतवाली
शुभ दीवाली की शोभा निराली ।
---------------द्वारा - कविता विकास

Monday 29 October 2012


     तू ही बता ज़िन्दगी 

घड़ी की रफ़्तार से चलती ज़िन्दगी
कभी -कभी उससे भी आगे निकलती हुई 
कोई तो बता दे यह भाग - दौड़ 
आखिर किसके लिए है ?
जब इसे भोगने का हमारे पास वक़्त नहीं ।
कितने बेबस हैं हम ,जिस ख़ुशी के लिए 
दिन - रात एक करते हैं 
उसे गुनगुनाने के लिए तरसते हैं ।
रिश्तों की परिभाषा खोजो तो 
दिल नहीं ,किताबों को पलटते हैं ।
अहसासों की गर्माहट तो कब की ठंडी हो गयी 
अब अस्थि कलश उठाने का भी वक़्त  नहीं ।
दिली अरमानों का गला घोंट कर 
परेशानियों का अंबार लगा लिया 
लाचारी का आलम ऐसा कि 
रोने के लिए भी कंधा तलाशते हैं ।
माँ की आँचल में नाक पोंछना याद है 
लोरी की गुनगुनाहट याद है 
याद नहीं तो बस वो सूरत 
जिसकी झुर्रियों में अपना बचपन दीखता है ।
तृषा की जाल में फड़फड़ाता प्राण 
खुली आँखों से सोता है 
स्व से स्व को जुदा करके 
ज़िंदा लाश होकर भी अकड़ता है ।
तू ही बता ज़िन्दगी 
और क्या - क्या दूँ तुम्हें
तुम्हें जीने की आरज़ू में 
पल -पल हम मरते हैं ।

Thursday 18 October 2012


  बिन डोर के 

कुछ लोग उतर जाते हैं दिल में 
बिन आहट ,बिन दस्तक के 
जैसे हो प्रारब्ध का कोई रिश्ता 
खींचे चले आते हैं बिन डोर के ।

सुषुप्त थीं अहसासों की गलियाँ
झकझोर दिया जादुई तरन्नुम में 
धड़कने लगीं थमती हुईं साँसे 
यह क्या ग़ज़ब किया पल भर में ।

न देखा, न जाना गहराई से ,पर 
आवाज़ की कशिश उनकी ऐसी 
कि लोकोलाज छोड़ उन तक 
पहुँच जाती पतझर की पत्ती सी ।

अब देखो उनके जुल्मो सितम 
कहते  हैं उन्हें भूल जाओ 
अग्नि परीक्षा कहाँ चाहा मैंने कि
झुलस कर तुम घायल हो जाओ ।

आहत कर मुझे तुष्टि पाते हो 
तुम अपने अहम् की
यह भी नायाब तरीका है तुम्हारा 
मुझे अपने पास लाने की ।

Monday 8 October 2012


लघु कथा 
   
                                                      हमारी धरोहर 




साहिबाबाद की तंग गलियाँ जहाँ चूड़ियों का कारोबार बड़े पैमाने पर होता था ,हमेशा ही मेरे आकर्षण का केंद्र रही है ।इस बार बहुत दिनों बाद वहाँ जाना  हुआ ।भाई - भाभी ने तो जैसे रिश्तेदारी को विसर्जित ही कर दिया था ,पर कुछ दफ्तर के काम से वहाँ का टूर बन गया था ।यह डर था कि अगर पतिदेव गए और उचित मेहमान नवाज़ी न की गयी तो फिर से एक खटास ताउम्र रह जायेगी ।इसलिए मैंने अकेले ही जाने का फैसला किया ।अपने अपमान का घूँट पी लूँगी।
                                   दरवाज़ा खोलते ही भाई ने स्वागत किया । "आ जाओ ,बहुत दिनों बाद 
आयी ।"भाभी करीब बीस मिनट बाद अपने बेडरूम से निकल कर एक फीकी मुस्कान बिखेरती हुई रसोई की ओर चली गयी ।यह बात तो कब से जाहिर हो गयी थी कि वह भाई जो मेरी कहानियों का आनंद लिए बिना सोता नहीं था ,उसके लिए रिश्तों की गर्माहट जाने कब की ठंडी हो चुकी थी ।मेरा अपना कमरा माडर्न  बाथरूम में तब्दील हो गया था ।माता - पिता की तस्वीर पर एक मोटी परत धूल की  जमी हुई एक टेबल पर पड़ी थी ।मुझे लगा शायद सफाई के लिए उसे उतारा गया होगा ।
                सुबह उठते ही मैंने चूड़ियों की गलियों में जाने की इच्छा व्यक्त की ।भाभी ने बताया ,"अरी ,अब वो गलियाँ कहाँ,उन्हें तो ध्वस्त कर बहुमंजीलीय  कालोनी में बदल दिया गया है ।"मैं सोचने लगी कि क्या पुरानी धरोहर यूँ ही मिट जायेगी ।हमारी आने वाली पीढ़ियाँ किसी शहर के विकास में सर्वस्व बलिदान देने वाली छोटी - छोटी गलियों और कस्बों के अस्तित्व को शायद किताबों में भी न पढ़ पायें ।
                         तभी बाहर से कबाड़ी वाले की आवाज़ आयी ।मैंने सुना भाभी अपने नौकर को कह रही थीं कि टेबल पर पड़ी सभी सामानों को दे दो ,उन्हें रख कर  बेकार ही घर में कचरा बढ़ता है ।अभी तक तो मैं शहर के पुनर्निर्माण पर स्तब्ध थी और अब माता - पिता की तस्वीर को कचरे में तब्दील होते देख रो पड़ी ।कैसे कोई इतना संवेदनहीन हो सकता है ?क्या इसी  आधुनिकता को विकास कहते हैं ??

Saturday 6 October 2012


लघु कथा

लाल सिगनल 


 लाल सिगनल पर गाड़ियों का काफिला रुकते ही वह दौड़ पड़ती है ।एक हाथ में प्लास्टिक सी बेरंग होती हुई रजनीगंधा की टहनियाँ और दूसरे हाथ से छः महीने की बच्ची को संभालती हुई ।मैंने फूलों को बिन लिए ही पैसे देने चाहे क्योंकि रजनीगंधा कभी नहीं महकी है मेरे दिल में जब से शीतांश से अलग हुई हूँ ।बड़े आत्मविश्वास से वह बोल उठती है ," मैं भीख नहीं मांग रही ,फूल बेच रही हूँ ।"मैंने बड़े बेमन से रजनीगंधा की कुछ टहनियाँ खरीद ली ।उसकी पारखी आँखों ने मेरी बेरुखी भाँप ली ।कहा ,"जहां रजनीगंधा नही महकती ,वह दीवारो -दर नहीं सजती कभी ।भूल जाओ बासी पड़ी यादों को और एक नए जीवन की शुरुवात करो ,दिल के किसी कोने में गुलाब की पंखुड़ियों सी नरम अहसास जगाओ ।मैंने अपनी बदहाली में भी दूसरों का चेहरा पढ़ा है ।"उस अनपढ़ की इस लाख टके की  बात ने सचमुच मेरा जीवन बदल दिया ।अब जब भी लाल सिगनल पर  गाड़ी रूकती है ,वह गुलाब की कलियाँ लेकर दौड़ती हुई आ जाती है ,जाने कितने दिलों को उसने इसकी सुगंध से आबाद किया होगा ।

Saturday 22 September 2012


                   आकाश 

विस्तृत इतना साम्राज्य तुम्हारा 
कि अपना अंत तुम ही नहीं देख पाते 
इतनी ऊंचाई में तुम बसते हो कि तुम सा 
होने की हम कामना भर करते हैं ।
आकाश, अपने सीमाहीन  विस्तार में 
असंख्य नक्षत्र पुत्रों को तुमने बसाया है 
सूर्य को सौंप सत्ता दिन का और 
रात का राजा चाँद को बना 
बंटवारा न्याय से निभाया है ।
दिवामणि  के जिस ताप से धरा झुलसती है 
उसकी विकीर्णता कैसे तुम सह पाते हो ?
तुम्हारी सहनशीलता अक्षुण्ण रहती है 
जब -जब प्रलय  रास - लीला रचती है ।
वितथ प्राण आकुल हो तुमको निहारते 
तब मेघों का  कर आमंत्रित ,पीयूष बरसाते हो 
वह उमड़ - घुमड़ ,बादलों का गर्जन 
पल -पल बिजली का कौंधना 
विभीषिका हमें कंपाती,पर तुम बेखबर रहते 
मौसम की अंगड़ाई अवश्यम्भावी है ।
यह संदेशा तुम बारम्बार लाते 
आकाश ,तुम सृष्टि हो 
तुमसे ही जीवनाधार है ।

तुम्हे नहीं लगता, दानवीर होकर भी 
तुम कितने खाली - खाली हो ,निःशेष हो 
इसलिए तो निहुरते हुए  धरा पर 
 गम के कोहरे में कभी - कभी डूब  जाते हो 
वह अप्रतिम रूप  तुम्हारा ,असहनीय होता है ।
हम चाहते तुम्हे सतरंगी किरणों के सान्निध्य में 
सदा हँसना - मुस्कुराना ।
आकाश ,तुम प्रकृति हो 
भावों के ,विचारों के ,वेदना- संवेदना के 
उबर कर गम के कोहरे से 
जब तुम प्रकाशमान होते हो 
मन -प्राण आह्लादित हो उठता है ।
सचमुच तुम आकाश हो 
विविध रंगों वाले ,काले - उजले वाले 
मन हमारा जब निराकाश होता है 
आँखें तुम्हे तकती हैं 
कि समा  जाओ पूरे लाव -लश्कर के साथ 
मुझमें और तुम्हे जी लें हम 
पूरी विस्तृतता,गंभीरता और चंचलता के साथ ।


मेरा शहर जी रहा है 

वह दर्दनाक मंज़र 

दिल को दहलाता,करुण विलाप 
सैंतीस साल बाद भी महफूज़ है ।
आँखों की मद्धिम रोशनी में 
झलक रही है दूसरे गाँवों की ओर पलायन 
और अपनी ज़मीन से  विरह की चीख- पुकार ।
गंगा के पानी का स्तर बढ़ रहा है 
तब पता नहीं था बाढ़ क्या होती है ?
कच्ची उम्र का तकाज़ा ,प्रशासन की चेतावनी 
बेहद आकर्षक लगती थी तब 
देखते -देखते पहला तल्ला डूब गया 
हमारा छत शरणार्थी स्थल बन गया 
एक रोटी पर पाँच मुँहों का निवाला था ।
बाढ़ ने हम एकाकी परिवार वालों को 
सामुहिकता में जीना सीखा दिया ।

मेरा शहर मर रहा था 

माँ कहती थी पटना को 
आग और पानी का सदा खतरा है 
चारों ओर पानी ही पानी 
न पेड़ ,न परिंदे ,न मनुष्य ,न जंतु 
क्या ही वीभत्स नज़ारा था 
आज भी आँखें स्याह हो जाती हैं ।
नावें चलतीं थीं बीच शहर में 
जीवितों के लिए ,अन्यथा लाशें तो 
तैर रहीं थीं ।
वह घिनौनी बदबू ,घिनौना माहौल 
जानलेवा होती जा रही थी ।

सात  दिनों की खतरनाक तबाही के बाद 

पानी का स्तर नीचे हो रहा था 
बारिश बंद हो चुकी थी 
मेरा शहर जीने की जद्दोजहद में लगा था 
वह पावन भूमि जिसकी मिट्टी में दफ़न है 
वीर शासकों के तन 
उनसे उत्पन्न रक्त - बीज दुःख - दारिद्रय को 
उड़न - छू करना बखूबी जानते हैं ।

और वह भोर आ ही गयी 

नई ऊर्जा विकीर्ण हो रही थी 
परिदों की चहचहाहट तूफानी रातों को 
विस्मृत कर रही थीं 
दुकानें सज गयीं ,
पेड़ - पौधे नई कोपलों से लद गए 
मिट्टी के कण - कण में समाहित ज्ञान - विज्ञान 
उर्जस्वित होने लगा है 
मेरा शहर जानता है  ,
आग में तपकर सोना कुंदन बनता है 
दुःख के सागर से सुख का मोती निकलता है 
मेरा शहर कभी नहीं मर सकता है 
मेरा शहर जी रहा है ।

Wednesday 19 September 2012


श्रम दिवस - उत्सव या उत्प्रेरक

1 मई ,1886 का दिन ,अमेरिका के गौरवशाली इतिहास में  एक और पृष्ठ का समावेश यह दिन पूरे  विश्व में जाना जाने लगा - मई दिवस या मजदूर दिवस के नाम से ।यही वह दिन था जब पूँजिपतियों के जुल्म के ऊपर श्रमिकों की जीत दर्ज हुई थी ।श्रम के आठ घंटे तय करने की मांग पर पूँजिपतियोंऔर मजदूरों के बीच छिड़ी जंग  अंततः ख़त्म हुई और श्रमिकों की जीत हुई
इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर पलने वाला श्रम दिन अपने आरंभिक दौर में खूब फला  - फूला ।कई नीतियाँ बनीं ,मजदूर संगठनों का निर्माण तथा प्रतिदिन आय में संशोधन ।मजदूरों को  विकास का  प्रमुख स्रोत समझा गया ।आर्थिक उदारीकरण में मजदूर  नीतियाँ अग्रगण्य रहीं
                             इन सब को छोड़कर आज के सन्दर्भ में बातें करते हैं - जीत का मायना ही बदल गया 8 घंटे क्या ,12 घंटों से भी ज्यादा श्रमिक पसीना बहाते हैं ,पर मजदूरी के नाम पर न्युनतम वेज भी नहीं मिलता है ।ठेके पर काम करवाने का चलन गया ,पर बिचौलिया तंत्र भी हावी हो गया ,जिससे कि  मजदूरों और कंपनी मालिकों के बीच सीधा संपर्क नहीं हो पाता  है ।संगठित मजदूरों के लिए लेबर युनियनों का अस्तित्व प्रभावशाली रहा है जो मजदूरों के हित में लड़ते हैं ।संगठन से मजबूती भी मिलती है ,आखिर एकता में बल  है ।पर ठेके पर काम करने वाले में संगठन का अभाव होता है ,और वे अपने शोषण के विरुद्ध आवाज़ नहीं उठा पाते  हैं ।स्थायी श्रमिकों को अच्छी  मजदूरी के साथ - साथ सामाजिक और स्वास्थ्य सम्बन्धी सुरक्षा भी मिलती है
                                 अब तो आर्थिक उदारीकरण से मिलने वाले लाभ भी नहीं दृष्टिगोचर  होते ,श्रमिकों की हालत बिगडती ही जा रही है ।खुली अर्थव्यवस्था और मशीनीकरण से उत्पादन वृद्धि तो हुई पर बेरोज़गारी भी बढ़ी है ।मनरेगा रोज़गार सक्षम योजना है ,पर उसकी राशि आधारभूत ज़रूरतों को भी पूरा नहीं कर पाती  ,ऊपर से बढ़ती  महंगाई ।आंगनबाड़ी ,शिक्षक बहाली जैसे कार्यक्रम चल रहे हैं पर उनकी गुणवत्ता और प्रतिदिन आय सवालों के घेरे में हैं
                                        बदलाव अवश्यम्भावी है पर उसे अपनाने के लिए योग्य बनना  आवश्यक है ।वैश्वीकरण ने जहां अवसरों की संख्या बढ़ाई  है ,वहाँ कुशल मजदूरों की मांग भी ।वोकेशनल शिक्षा को अभी तक युद्ध स्तर पर स्कूली शिक्षा  में शामिल नहीं किया गया है ।एक सर्वे के मुताबिक 2022 तक अकेले भारत में ही 50 करोड़ योग्य श्रमिक की ज़रुरत पड़ेगी ।सवाल है कि इतने योग्य श्रमिक पैदा करने की क्षमता क्या हमारे सरकारी तंत्र और उनसे जुडी शिक्षा तंत्र में है ?और अगर है तो उनके क्रियान्वयन में देर क्यों ? कार्य प्रणाली में बदलाव नहीं लाया गया तो हो सकता  आने वाले दिनों में पढ़े - लिखे मजदूरों की समस्या से  भी जूझना पड़े जिससे  निश्चित तौर पर बेरोज़गारी में इजाफा होगा
                                        श्रमिक दिवस सरकारी कैलेंडरों में लाल रंग से अंकित कर छुट्टी दिलाने की एक परंपरा बन कर रह गया है। छिटपुट सम्मान और योजनाओं  की घोषणा मात्र से श्रमिक दिवस की खानापूर्ति हो जाती है ।समय की मांग है कि ट्रेड युनियन जो अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं ,एक बार फिर से प्रभावशाली बनें और असंगठित क्षेत्र के श्रमिक मालिकों के साथ सीधा संपर्क साध कर बिचौलिए की भूमिका का नाश करें ।श्रमिक देश के विकास के मज़बूत स्तम्भ हैं ,उनकी शक्ति के अनुरूप उन्हें सुविधाएं मिलें तभी श्रम दिवस की सार्थकता है

कविता  विकास (लेखिका )
डी - 15,सेक्टर -9,कोयलानगर
धनबाद
Kavitavikas28@gmail.com

जल ही  जीवन है
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पहाड़ों से बहती सलिला हो या मेघ के बूंद में समाहित सुधा ,जनसाधारण के लिए यह केवल पानी है ,एक ऐसा तत्व जिसके बिना जीवन असंभव है ।७९%भूभाग पर जल है और केवल २१%पर आबादी ,फिर भी पानी के अभाव या दूषित पानी से होने वाली मौतें सर्वाधिक हैं भौगोलिक दृष्टिकोण से हर महादेश के पश्चिमी भाग में मरुभूमि है क्योंकि बादल यहाँ तक पहुँचते - पहुँचते अपनी नमी खो बैठते हैं।भूगर्भिय स्रोत भी कहीं - कहीं हैं  ।नदियों का पानी एक निश्चित जनसंख्या की कमी पूरी करता है ।बढती आबादी और वायुमंडल में बढ़ता ताप  उपयोग में आने वाले जल की कमी का  मुख्य  कारण है ।समय गया है कि हम पानी के महत्त्व को पहचानें
                                     हर व्यक्ति का कर्तव्य है अगर कहीं पानी का दुरूपयोग देखे या अनावश्यक रूप से इसका बहाव तो तुरंत स्थानीय विभाग को सूचित करे ।बाथरूम ,वाशबेसिन आदि जगहों में किफ़ायत से इसका इस्तेमाल करे ।पाठ्यक्रम में पानी के महत्व पर पाठ हों ।छोटी -छोटी पहल से ही बड़ी सफलता हासिल होती है 'जल ही जीवन है 'तो इस जीवन को सहेजने का दायित्व भी जीवधारियों को ही है

                    लघु कथा                                                                 

आग
कोयले की खदानों में काम करने वाले मज़दूर।काले चेहरे ,काली शर्ट ,गमबूट और हेलमेट ।यही पहनावा है ,कई बार तो आप पहचान भी नहीं पायेंगे कि गनिलाल कौन है और करीमचंद कौन ?चेहरे के साथ शरीर के खुले हिस्से में काली धूल का जमाव ।शाम होते ही खदानों के  पास की बस्तियों में अजीब सी रंगत देखने को मिलती है ।सूर्य की लालिमा में गोधुली नहीं ,घर के चूल्हों से निकलने वाला धुआँ व्याप्त रहता है ।धुएं की महक में कोई अपरिचित शायद ही सांस ले सके ,लेकिन यह महक तो खदान की जिंदगियों का एक हिस्सा है ।रात होते - होते आसमान के सितारों की तरह छोटे - छोटे मद्धिम बल्ब एक - एक कमरे की छोटी -छोटी मकानों में टिमटिमाने लगते हैं ।फिर शुरू होती है दिन भर की थकावट को मिटाने की  एक नायाब कोशिश ।जिनकी रात की शिफ्ट नहीं है ,वो खाने की जगह दारू पर ही गुजारा करते हैं ।अकेली पड़ी विधवाएँ या जवान बेटियाँ जिनके पास गुज़ारे  का एक ही साधन है - अपने जिस्म को परोस देना ,वे भी चल पड़ती हैं अपने धंधे पे 
                                                  यही वह समय होता है जब कोयला चोरी करने वाले अपने  मिशन पर निकल पड़ते हैं ।बंद पड़ी खदानों से चोरी - चोरी कोयला निकालने वालों में हरिया भी है ।तीन बच्चों और बीबी के साथ रहने वाला हरिया ।घर का तंग माहौल जवान होते बच्चों को बाँध सका ।आठवीं तक पढने के बाद बड़ा बेटा घर से भाग गया ।हरिया ने कोई खोज - खबर नहीं ली ।एक निवाला कम होना और गज भर ज़मीं पसरने के लिए मिल जाना रिश्तों की गर्माहट को जाने कब का मार चूका था ।चोरी के कोयले को ऊँचे  दामों पर बेच कर उसने बहुत जल्द पैसे बना लिए ।गालियों से बात करने वाला हरिया धीरे - धीरे पत्नी और दोनों बच्चों को भी इस गैर क़ानूनी काम में लगा दिया ।ज्यादा हाथ ,ज्यादा पैसे ।पुलिस ने कई बार दबोचा पर हरिया जेब गर्म करने की कला में भी माहिर निकला
                                             वह बरसाती रात हर दिन की तरह नहीं थी ।पूरा परिवार खुले खदान की साठ मीटर की गहराई पर कोयला निकालने में संलग्न था ।घुप्प अँधेरा ,टार्च की मद्धिम रोशनी।तभी एक जानलेवा गैस के रिसाव से उनमे हलचल मच गयी ।भागने के क्रम में ही दो दिनों की बारिश में नर्म और कमज़ोर परत एक घुप्प सी आवाज़ के साथ नीचे धंस गयी ।साथ में दफ़न हो गए हरिया की पत्नी और बच्चे ।हरिया के सर से दारू का असर काफूर हो चूका था ।हाँफते - हाँफते वह बाहर निकला और चाह कर भी अपनों का मृत शरीर खींच पाया ।सिर धुनता हुआ पागलों की तरह वह उसी इंस्पेक्टर के समक्ष था जिसको उसने खरीद रखा था ।उसके हाथ इंस्पेक्टर के गले पर मज़बूत होते गए गले से रुन्धती आवाज़ में वह इतना ही बोल पा रहा था कि उसने उसके गलत काम को सख्ती से क्यों रोका?अब तो पूरे घर में जगह ही जगह थी सोने को ...पर नींद कहाँ ! पश्चाताप की आग में आज उसे अपने बड़े बेटे का भी चेहरा याद रहा था ।खदान की आग दिल की आग बन गयी थी ।हरिया जल कर झुलस चूका था
                                          आज का सूर्योदय उसके लिए ख़ास था ।बड़े साहब के आगे अपने गुनाहों को कबूल करते हुए आत्म - समर्पण ।वह चाहता था एक बार मुंशी ,दारा,बिल्ला आदि उसके दोस्त उससे मिलने आयें ,जिन्हें वह इस अनजानी राह से अवगत करा सके ।पर जेल की काल कोठरी से हर किसी ने किनारा कर लिया था ।यत्रवत चलती रही ...वही दिनचर्या