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Saturday 6 October 2012


लघु कथा

लाल सिगनल 


 लाल सिगनल पर गाड़ियों का काफिला रुकते ही वह दौड़ पड़ती है ।एक हाथ में प्लास्टिक सी बेरंग होती हुई रजनीगंधा की टहनियाँ और दूसरे हाथ से छः महीने की बच्ची को संभालती हुई ।मैंने फूलों को बिन लिए ही पैसे देने चाहे क्योंकि रजनीगंधा कभी नहीं महकी है मेरे दिल में जब से शीतांश से अलग हुई हूँ ।बड़े आत्मविश्वास से वह बोल उठती है ," मैं भीख नहीं मांग रही ,फूल बेच रही हूँ ।"मैंने बड़े बेमन से रजनीगंधा की कुछ टहनियाँ खरीद ली ।उसकी पारखी आँखों ने मेरी बेरुखी भाँप ली ।कहा ,"जहां रजनीगंधा नही महकती ,वह दीवारो -दर नहीं सजती कभी ।भूल जाओ बासी पड़ी यादों को और एक नए जीवन की शुरुवात करो ,दिल के किसी कोने में गुलाब की पंखुड़ियों सी नरम अहसास जगाओ ।मैंने अपनी बदहाली में भी दूसरों का चेहरा पढ़ा है ।"उस अनपढ़ की इस लाख टके की  बात ने सचमुच मेरा जीवन बदल दिया ।अब जब भी लाल सिगनल पर  गाड़ी रूकती है ,वह गुलाब की कलियाँ लेकर दौड़ती हुई आ जाती है ,जाने कितने दिलों को उसने इसकी सुगंध से आबाद किया होगा ।

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