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Saturday, 22 September 2012


                   आकाश 

विस्तृत इतना साम्राज्य तुम्हारा 
कि अपना अंत तुम ही नहीं देख पाते 
इतनी ऊंचाई में तुम बसते हो कि तुम सा 
होने की हम कामना भर करते हैं ।
आकाश, अपने सीमाहीन  विस्तार में 
असंख्य नक्षत्र पुत्रों को तुमने बसाया है 
सूर्य को सौंप सत्ता दिन का और 
रात का राजा चाँद को बना 
बंटवारा न्याय से निभाया है ।
दिवामणि  के जिस ताप से धरा झुलसती है 
उसकी विकीर्णता कैसे तुम सह पाते हो ?
तुम्हारी सहनशीलता अक्षुण्ण रहती है 
जब -जब प्रलय  रास - लीला रचती है ।
वितथ प्राण आकुल हो तुमको निहारते 
तब मेघों का  कर आमंत्रित ,पीयूष बरसाते हो 
वह उमड़ - घुमड़ ,बादलों का गर्जन 
पल -पल बिजली का कौंधना 
विभीषिका हमें कंपाती,पर तुम बेखबर रहते 
मौसम की अंगड़ाई अवश्यम्भावी है ।
यह संदेशा तुम बारम्बार लाते 
आकाश ,तुम सृष्टि हो 
तुमसे ही जीवनाधार है ।

तुम्हे नहीं लगता, दानवीर होकर भी 
तुम कितने खाली - खाली हो ,निःशेष हो 
इसलिए तो निहुरते हुए  धरा पर 
 गम के कोहरे में कभी - कभी डूब  जाते हो 
वह अप्रतिम रूप  तुम्हारा ,असहनीय होता है ।
हम चाहते तुम्हे सतरंगी किरणों के सान्निध्य में 
सदा हँसना - मुस्कुराना ।
आकाश ,तुम प्रकृति हो 
भावों के ,विचारों के ,वेदना- संवेदना के 
उबर कर गम के कोहरे से 
जब तुम प्रकाशमान होते हो 
मन -प्राण आह्लादित हो उठता है ।
सचमुच तुम आकाश हो 
विविध रंगों वाले ,काले - उजले वाले 
मन हमारा जब निराकाश होता है 
आँखें तुम्हे तकती हैं 
कि समा  जाओ पूरे लाव -लश्कर के साथ 
मुझमें और तुम्हे जी लें हम 
पूरी विस्तृतता,गंभीरता और चंचलता के साथ ।

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