आकाश
विस्तृत इतना साम्राज्य तुम्हारा
कि अपना अंत तुम ही नहीं देख पाते
इतनी ऊंचाई में तुम बसते हो कि तुम सा
होने की हम कामना भर करते हैं ।
आकाश, अपने सीमाहीन विस्तार में
असंख्य नक्षत्र पुत्रों को तुमने बसाया है
सूर्य को सौंप सत्ता दिन का और
रात का राजा चाँद को बना
बंटवारा न्याय से निभाया है ।
दिवामणि के जिस ताप से धरा झुलसती है
उसकी विकीर्णता कैसे तुम सह पाते हो ?
तुम्हारी सहनशीलता अक्षुण्ण रहती है
जब -जब प्रलय रास - लीला रचती है ।
वितथ प्राण आकुल हो तुमको निहारते
तब मेघों का कर आमंत्रित ,पीयूष बरसाते हो
वह उमड़ - घुमड़ ,बादलों का गर्जन
पल -पल बिजली का कौंधना
विभीषिका हमें कंपाती,पर तुम बेखबर रहते
मौसम की अंगड़ाई अवश्यम्भावी है ।
यह संदेशा तुम बारम्बार लाते
आकाश ,तुम सृष्टि हो
तुमसे ही जीवनाधार है ।
तुम्हे नहीं लगता, दानवीर होकर भी
तुम कितने खाली - खाली हो ,निःशेष हो
इसलिए तो निहुरते हुए धरा पर
गम के कोहरे में कभी - कभी डूब जाते हो
वह अप्रतिम रूप तुम्हारा ,असहनीय होता है ।
हम चाहते तुम्हे सतरंगी किरणों के सान्निध्य में
सदा हँसना - मुस्कुराना ।
आकाश ,तुम प्रकृति हो
भावों के ,विचारों के ,वेदना- संवेदना के
उबर कर गम के कोहरे से
जब तुम प्रकाशमान होते हो
मन -प्राण आह्लादित हो उठता है ।
सचमुच तुम आकाश हो
विविध रंगों वाले ,काले - उजले वाले
मन हमारा जब निराकाश होता है
आँखें तुम्हे तकती हैं
कि समा जाओ पूरे लाव -लश्कर के साथ
मुझमें और तुम्हे जी लें हम
पूरी विस्तृतता,गंभीरता और चंचलता के साथ ।
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