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Tuesday 22 January 2013


  सूरज 

गगनचुम्बी पर्वतों के पीछे से 
सहमा -सकुचाता सूरज 
ज्यों - ज्यों निकलता है 
लाल घूँघट का पट खोले 
लजाती सी छुई - मुई किरणें 
करवटें बदलती 
ढालों से तलहट तक 
छा जाती हैं ।
अलसाई सी धरती 
कुनमुनाती हुई तब 
अंगड़ाई लेती है
 और मंद पवन का 
  एक शरारती झोंका 
आँचल हरा उड़ाकर 
निश्छल मुस्काता है ।
देख भास्कर को चढ़ता उत्तरोत्तर 
सागर भी कसमसाता हुआ 
हौले -हौले उठता है 
लहरों की संगमरमरी देह पर 
सुनहरी किरणों की अठखेलियाँ 
लड़कपन की चुहलबाजी सी हैं ।
चीर कर घने अरण्यों को 
फुनगियों पर से फिसलता सूरज 
धूप -छाँव का खेल खेलता 
धरती के बेहद करीब आ 
अपनी नर्म - गर्म साँसों से 
मुहब्बत का पैगाम सुनाता है ।
 क्षितिज पर ख़ुशी - ख़ुशी ढलता 
सागर के अंक में सिमटता 
उस पार धरती के, यही चक्र दोहराता 
और लिख जाता वहाँ भी हर दिन 
इश्क की एक नई इबारत    ।

Monday 14 January 2013


***मैं झील नहीं***
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मैं एक बड़े गड्ढे में 
स्थिर पड़ा पानी हूँ
चारो ऑर ऊंची ज़मीन से बंधी 
न निकास न बहाव 
मटमैली हो जाती हूँ।

शैवाल की लम्बी-लम्बी घासें 
यत्र-तत्र निकल कर
मुझे हरा कर देती हैं।

एक तीक्ष्ण दमघोंटू बदबू से 
मेरा अंतस्तल भर जाता है
कोई पैर से छपकियां मारता 
कोई नाव चला रौंद जाता
मेरा आक्रोश अंदर ही अंदर 
मुझे सालता रहता है। 

शामके वक़्त बच्चे जी भर 
पत्थरों की बौछार करते 
चाह कर भी मैं बोल नहीं पाती
बस प्रतिरोध में कुछ 
बुलबुले उछाल देती हूँ।

मैं झील हूँ।

मुझे झील बना दिया गया है 
पर, मैं झील नहीं बनना चाहती हूँ 
मैं नदी सी प्रवाहिनी होना चाहती हूँ 
नदी सी विस्तारक 
नदी सी निस्तारक
इठलाती-बलखाती निरंतर प्रवाहमान 
कोई चाहे मुझे रोकना या रौंदना
तो मैं प्रलयंकारी बन जाऊँ। 

अपने अस्तित्व की रक्षा में 
दूसरों पर न आश्रित होऊं
बल्कि अपने से क्षीण दरियाओं का 
संबल बन मैं विशाल बन जाऊँ।

हाँ, मैं जीवनदायिनी हूँ 
मैं स्त्री हूँ।

मैं नहीं चाहती झील सा ठहराव 
मैं झील नहीं,
मुझे नदी बनने दो।

Wednesday 9 January 2013


   
  जी लो आज 

आसमां का अंचल 
भर कर अमृतकलश 
बूंद  - बूंद छलकाता है ।
उष्मित कर अंशुमाली 
नवांकुर से कोख भर 
थिरक -थिरक मुस्काता है ।
प्राणवायु झूमता उल्लसित 
भर अंक नवसृजन को 
मंद -मंद झुलाता है ।
नव पल्लव ,नव किसलय 
नव पुष्पों का श्रृंगार 
नित - नित रिझाता है ।
वसुधा का उपवन 
भर चारुता चहुँदिश 
अंग -अंग सहलाता है ।
दानी ज्ञानी द्रुमदल 
शरदगति या कुसुमागम को 
ख़ुशी -ख़ुशी अपनाता है ।
और तो और ऋतंभर सा 
रचकर दुनिया बेमिशाल 
पल -पल सन्देशा देता है 
कि जी लो भरपूर आज 
वरन आने को पतझड़ 
इक- इक दिन गिनता है ।