***मैं झील नहीं***
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मैं एक बड़े गड्ढे में
स्थिर पड़ा पानी हूँ
चारो ऑर ऊंची ज़मीन से बंधी
न निकास न बहाव
मटमैली हो जाती हूँ।
शैवाल की लम्बी-लम्बी घासें
यत्र-तत्र निकल कर
मुझे हरा कर देती हैं।
एक तीक्ष्ण दमघोंटू बदबू से
मेरा अंतस्तल भर जाता है
कोई पैर से छपकियां मारता
कोई नाव चला रौंद जाता
मेरा आक्रोश अंदर ही अंदर
मुझे सालता रहता है।
शामके वक़्त बच्चे जी भर
पत्थरों की बौछार करते
चाह कर भी मैं बोल नहीं पाती
बस प्रतिरोध में कुछ
बुलबुले उछाल देती हूँ।
मैं झील हूँ।
मुझे झील बना दिया गया है
पर, मैं झील नहीं बनना चाहती हूँ
मैं नदी सी प्रवाहिनी होना चाहती हूँ
नदी सी विस्तारक
नदी सी निस्तारक
इठलाती-बलखाती निरंतर प्रवाहमान
कोई चाहे मुझे रोकना या रौंदना
तो मैं प्रलयंकारी बन जाऊँ।
अपने अस्तित्व की रक्षा में
दूसरों पर न आश्रित होऊं
बल्कि अपने से क्षीण दरियाओं का
संबल बन मैं विशाल बन जाऊँ।
हाँ, मैं जीवनदायिनी हूँ
मैं स्त्री हूँ।
मैं नहीं चाहती झील सा ठहराव
मैं झील नहीं,
मुझे नदी बनने दो।
नारी मन की व्यथा को दर्शाती अच्छी कविता
ReplyDeleteनारी को नदी की भाँती गतिमय बनने दो तभी वो स्रजनात्मक ,भावात्मक ,स्वस्थ समाज परिवार की नीव डाल सकेगी ,बहुत सुन्दर उन्नत भाव युक्त रचना बहुत बधाई कल चर्चा मंच पर स्वागत है आपका
ReplyDeleteसुन्दर रचना!
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