सूरज
गगनचुम्बी पर्वतों के पीछे से
सहमा -सकुचाता सूरज
ज्यों - ज्यों निकलता है
लाल घूँघट का पट खोले
लजाती सी छुई - मुई किरणें
करवटें बदलती
ढालों से तलहट तक
छा जाती हैं ।
अलसाई सी धरती
कुनमुनाती हुई तब
अंगड़ाई लेती है
और मंद पवन का
एक शरारती झोंका
आँचल हरा उड़ाकर
निश्छल मुस्काता है ।
देख भास्कर को चढ़ता उत्तरोत्तर
सागर भी कसमसाता हुआ
हौले -हौले उठता है
लहरों की संगमरमरी देह पर
सुनहरी किरणों की अठखेलियाँ
लड़कपन की चुहलबाजी सी हैं ।
चीर कर घने अरण्यों को
फुनगियों पर से फिसलता सूरज
धूप -छाँव का खेल खेलता
धरती के बेहद करीब आ
अपनी नर्म - गर्म साँसों से
मुहब्बत का पैगाम सुनाता है ।
क्षितिज पर ख़ुशी - ख़ुशी ढलता
सागर के अंक में सिमटता
उस पार धरती के, यही चक्र दोहराता
और लिख जाता वहाँ भी हर दिन
इश्क की एक नई इबारत ।
बहुत सुन्दर रचना रची है आपने!
ReplyDeleteइस ब्लॉग का तो मुझे पता ही नहीं था!
इस पर फॉलोवर की सूचि भी लगाइए!
खुशी-खुशी ढलता, अंक में सिमटता, उस पार यही चक्र दोहराता, इश्क की नई इबारत लिखता........प्रकृति के माध्यम से सद्भावना का मासूम प्रयास।
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