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Monday 10 October 2016

हे जगदम्बे महिषासुर मर्दिनी माँ 
उद्धार करो जग का हे तमहारिनी माँ। 
आतंक है छाया आततायी भष्मासूरों का 
संहार करो वहशियों का हे अष्टभुजंगिनी माँ। 
आह्वान करते हम आद्या ,लक्ष्मी और शारदे का 
शक्ति वैभव और विद्या दो हे वरदायिनी माँ।
मिलती नही कन्या ,रस्म छूटेगा कन्या पूजन का
पहना दो रक्षा कवच गर्भ से ही हे नारायणी माँ।
भयाक्रांत सभी ,मन अधीर देख पीर जग का
साहस संयम भर दो हममें हे कात्यायनी माँ।
होता नही अंत कभी हमारे दुःख - दारिद्रय का
पीयूष पावस में भीग जाएं अब,हे इन्द्राणी माँ।
मिटा दो रिवाज़ नारियों की अग्नि परीक्षा का
आ जाओ धरा पे ,हे विशय विनाशिनी माँ।
खुशियां हों अपार ,आँगन आनंद मंगल का
दे दो मूलमंत्र मानवता का ,हे ओंकारिणी माँ।
तोड़ भरम का मायाजाल,नाश होअंधप्रथाओं का
हर नारी में हो छवि तुम्हारी हे दुर्गेशनंदिनी माँ।....copyright kv
बना दो या बिगाड़ दो आशियाँ दिल का
हाथ में ये तेरे है ,नहीं काम कुदरत का।
तोड़ दो यह ख़ामोशी ,खफ़गी भी अब
सर ले लिया अपने, इल्ज़ाम मुहब्बत का।
जी करता है बिखर जाऊं खुशबू बन
तोड़ कर बंदिशें तेरी यादों के गिरफ्त का।
बज़्मे जहान में कोई और नहीं जंचता
कुर्बत में तेरे जवाब है हर तोहमत का।
उम्मीदों का दीया जलता है मुसलसल
कभी तो बरसेगा मेघ उसकी रहमत का।.

Monday 20 June 2016

मेघ उतरता है
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पतझड़ सी नीरवता से जब
मन भर जाता है
मेघ उतरता है नैनों में
आसमान रीत जाता है।

वितथ जीवन का तथ्य
मैं अकिंचन क्या जानूं
दिन - रात की आपाधापी में
जीवन - संगीत जाता है।

आजमाती है ये दुनिया
बिखरा के कांटे पथ में
ये तो मेरा जज़्बा है जो
बन मीत जाता है।

जलाया है दहलीज पे
एक चराग तेरे नाम का
तम की गलियों से अब कौन
भयभीत जाता है।

हो आँखों के नीर तुम
दुःख में और सुख में भी
उर - वीणा के तार छेड़
लिखा प्रीत जाता है।

मिज़ाजे मौसम की मानिंद
बदलते हैं इंसां भी नित
संग दो पल की आरज़ू में
बरस बीत जाता है।

शज़र हूँ तेरे चमन की पर
चहकते नहीं परिंदे कभी
मन की दरीचों से पिघल
नहीं शीत जाता है।

दम्भ के छद्म घेरे में 
विचरते  प्रस्तर प्राण हैं 
साँसों की होड़ लगा कौन
ताउम्र जीत जाता है।

गहन कुहरा छाता है जब
दुःख संत्रास घूटन का
तुम्हारी यादों के आफ़ताब से

बन अतीत जाता है।

Thursday 11 February 2016

मुनिया के सपने 
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 लगन के दिन  चढ़ चुके हैं 
बगल के हाते से शहनाई की आवाज़ सुन 
मुनिया खोल पड़ती है उस संदूकची को 
रखे थे जिसमे एक लाल गट्ठर में पिता ने 
एक जोड़ी पायल ,बिछुआ और कंगन। 
हर साल फसल पकने के बाद 
एक उम्मीद की किरण फूटती थी 
इस बार उस पर भी लगन चढ़ जाये ,शायद। 
बीतते गए लगन के दिन साल दर साल 
बिसर गए मुनिया के प्रीत के गीत 
परास्त हो गए पिता के सपने 
मौसम की मार और महाजन के क़र्ज़ 
पिता की जान पर भारी पड़ गए। 
पिता ने आत्महत्या कर ली। 
लाल गट्ठर के गहने अब 
मुनिया को चिढ़ाते से लगते 
धीरे - धीरे एक - एक जोड़ी गहने 
क़र्ज़ - भुगतान की भेंट चढ़ गए। 
मुनिया की देह पर हल्दी नहीं चढ़ी 
लाल गट्ठर अब भी संदूकची में है 
पिता के दायित्व का अहसास बन कर 
और ,मुनिया के सपनों की  राख बन कर। ...कॉपीराइट@k.v

Saturday 16 January 2016

तुम्हारा जाना
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जीवन में सब कुछ होते हुए भी
तुम बिन अम्मा  नहीं है कुछ भी।
  टंगे हुए हैं सूप और झोले
जैसे छोड़ा था तुमने कपाट पीछे
गँवारू सामान ये कौन खोले
भागते  बाज़ारू चकाचौंध के पीछे।
   बड़े- बुजुर्गों की करते अनदेखी
    मतभेद  है कारण मनभेद का भी।
 जूझ रही बँटवारे की आँधी में
अमुआ की डाली और बाबा की तुलसी
उमंग - तरंग नहीं जीवन - सरिता में
कलह - क्लेश से भर गयी कलसी।
     जाना तुम्हारा महज जाना नहीं था
      साथ ले गयी घर की बुनियाद भी।
अब नहीं सूखती आँगन में
आचार ,पापड़ और बड़ियाँ
नहीं गूँजती कोने - कोने में
हँसी- ठिठोली और किलकारियाँ।
        विह्वल मन प्राण को तुम समझाती
       अपना लो बदलाव के इस दौर को भी।
सुनाती नहीं बहुएँ अब किस्से - कहानियाँ
तहज़ीबी रंगों वाली बैठकी नहीं लगतीं
वो तज़ुर्बे कहाँ जो बदल दें ज़िंदगानियाँ
उच्श्रृंखल  व्यवहार जब आँखों में ख़टकतीं
           कौन समझाए उन्हें ,नवीनता है आवश्यक
             पर पुरानी परम्पराओं का रखो मान भी।