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Tuesday 20 November 2012


               पतझड़

भूरी ,पीली - पीली ,कुछ सुनहरी 
मटमैली ,कहीं टंगती ,कहीं झरती 
हल्दी सी रंगत वाली  प्रकृति 
सिंगार के पहले भी इतराती ।
वो बदरंगी पत्तियाँ सूखती हैं 
पतंग सरीखी नभ में तरती हैं ।

दुःख के बादल जब घिरते हैं 
हम उसे पतझड़ की संज्ञा देते हैं 
पतझड़ अपने साथ ढोता है 
ग्लानि,गम ,उदासी ,उत्ताप ।

पर ,इस वीरानगी में भी जीवन्तता है 
बिछ जाती हैं सुखी पत्तियाँ राहों में 
कुचल कर पैरों तले
चरमराने की विशिष्ट ध्वनि 
मचाती है वीरानों में ।
उड़ती है हवाओं संग जब 
जाने किस व्यथित हृदय की पाती बन 
पहुँच जाती पिय पास ,जहां न जाए तन ।

सच ,खोने के बाद ही है  पाने का सुख 
रिक्तता में होती समग्रता 
सुख की अहमियत है तभी 
जब दुःख  कुठराघात करता ।
पतझड़ होता है बेरौनक 
वसंत तभी लगता मनमोहक ।
पतझड़ केवल ऋतुचक्र नहीं 
वह जीने की कला है 
जीवट है ,जिजीविषा प्रबल कर 
एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माता है ।

Monday 5 November 2012


 दीवाली
तम का  नाश करने वाली
प्यार की ज्योत जलाने वाली
दीवाली है बड़ी अलबेली
रोशन करती दीपों की अवली ।
अमावस की रात होती काली
आसमाँ के पैबंद आज खाली
सितारों की चादर ओढ़े धरा
जगमग- जगमग करती वसुंधरा ।
दूकानें सज गयीं खील -बताशों की
आ रही सवारी लक्ष्मी - गणेश की
पटाखों की आवाज़ गूँजने लगी
पकवानों की खुशबू उड़ने लगी ।
भाषा - भूषा की दीवारें पाट कर
दीवाली मनाएँ हम गले मिलकर
हर दिल अज़ीज़ यह मतवाली
शुभ दीवाली की शोभा निराली ।
---------------द्वारा - कविता विकास