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Sunday 13 April 2014

प्रेम के अर्थ
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पीत  पर्ण फिर हरियाए
वायवी उड़ानों संग हर्षाए
वन - प्रांतर में चली पुरवाई
गंध - गंध सुरभित अमराई
सौगंध पुराने कुछ याद आए
पोर - पोर अमलतासी हो गए।
 किंशुक दावानल सा भरमाए
महुआवी आँखों में शोख छलकाए
अरुणोदय आभा सर्वत्र मुस्काई
अंग - अंग भर तरुणाई
तुम जो ऐसे में मिल गए
मन के अनुबंध हो गए।
देहरी पर बंदनवार सजाए
दिन अभिसार के लौट आए
यायावरी मन में बजी शहनाई
हल्दी रंग में देह लजाई
सपने सारे वासंतिक हो गए
प्रेम के अर्थ व्यापक हो गए।