तुम्हारा जाना
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जीवन में सब कुछ होते हुए भी 
तुम बिन अम्मा 
नहीं है कुछ भी। 
  टंगे
हुए हैं सूप और झोले 
जैसे छोड़ा था तुमने कपाट पीछे 
गँवारू सामान ये कौन खोले 
भागते 
बाज़ारू चकाचौंध के पीछे। 
   बड़े-
बुजुर्गों की करते अनदेखी 
   
मतभेद  है कारण मनभेद का भी।
 जूझ
रही बँटवारे की आँधी में 
अमुआ की डाली और बाबा की तुलसी 
उमंग - तरंग नहीं जीवन - सरिता में 
कलह - क्लेश से भर गयी कलसी। 
    
जाना तुम्हारा महज जाना नहीं था 
     
साथ ले गयी घर की बुनियाद भी। 
अब नहीं सूखती आँगन में 
आचार ,पापड़ और बड़ियाँ 
नहीं गूँजती कोने - कोने में 
हँसी- ठिठोली और किलकारियाँ। 
       
विह्वल मन प्राण को तुम समझाती 
      
अपना लो बदलाव के इस दौर को भी। 
सुनाती नहीं बहुएँ अब किस्से - कहानियाँ
तहज़ीबी रंगों वाली बैठकी नहीं लगतीं 
वो तज़ुर्बे कहाँ जो बदल दें ज़िंदगानियाँ
उच्श्रृंखल 
व्यवहार जब आँखों में ख़टकतीं 
          
कौन समझाए उन्हें ,नवीनता है आवश्यक
पर पुरानी परम्पराओं का रखो मान भी।
पर पुरानी परम्पराओं का रखो मान भी।
 
 
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