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Wednesday 19 September 2012


श्रम दिवस - उत्सव या उत्प्रेरक

1 मई ,1886 का दिन ,अमेरिका के गौरवशाली इतिहास में  एक और पृष्ठ का समावेश यह दिन पूरे  विश्व में जाना जाने लगा - मई दिवस या मजदूर दिवस के नाम से ।यही वह दिन था जब पूँजिपतियों के जुल्म के ऊपर श्रमिकों की जीत दर्ज हुई थी ।श्रम के आठ घंटे तय करने की मांग पर पूँजिपतियोंऔर मजदूरों के बीच छिड़ी जंग  अंततः ख़त्म हुई और श्रमिकों की जीत हुई
इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर पलने वाला श्रम दिन अपने आरंभिक दौर में खूब फला  - फूला ।कई नीतियाँ बनीं ,मजदूर संगठनों का निर्माण तथा प्रतिदिन आय में संशोधन ।मजदूरों को  विकास का  प्रमुख स्रोत समझा गया ।आर्थिक उदारीकरण में मजदूर  नीतियाँ अग्रगण्य रहीं
                             इन सब को छोड़कर आज के सन्दर्भ में बातें करते हैं - जीत का मायना ही बदल गया 8 घंटे क्या ,12 घंटों से भी ज्यादा श्रमिक पसीना बहाते हैं ,पर मजदूरी के नाम पर न्युनतम वेज भी नहीं मिलता है ।ठेके पर काम करवाने का चलन गया ,पर बिचौलिया तंत्र भी हावी हो गया ,जिससे कि  मजदूरों और कंपनी मालिकों के बीच सीधा संपर्क नहीं हो पाता  है ।संगठित मजदूरों के लिए लेबर युनियनों का अस्तित्व प्रभावशाली रहा है जो मजदूरों के हित में लड़ते हैं ।संगठन से मजबूती भी मिलती है ,आखिर एकता में बल  है ।पर ठेके पर काम करने वाले में संगठन का अभाव होता है ,और वे अपने शोषण के विरुद्ध आवाज़ नहीं उठा पाते  हैं ।स्थायी श्रमिकों को अच्छी  मजदूरी के साथ - साथ सामाजिक और स्वास्थ्य सम्बन्धी सुरक्षा भी मिलती है
                                 अब तो आर्थिक उदारीकरण से मिलने वाले लाभ भी नहीं दृष्टिगोचर  होते ,श्रमिकों की हालत बिगडती ही जा रही है ।खुली अर्थव्यवस्था और मशीनीकरण से उत्पादन वृद्धि तो हुई पर बेरोज़गारी भी बढ़ी है ।मनरेगा रोज़गार सक्षम योजना है ,पर उसकी राशि आधारभूत ज़रूरतों को भी पूरा नहीं कर पाती  ,ऊपर से बढ़ती  महंगाई ।आंगनबाड़ी ,शिक्षक बहाली जैसे कार्यक्रम चल रहे हैं पर उनकी गुणवत्ता और प्रतिदिन आय सवालों के घेरे में हैं
                                        बदलाव अवश्यम्भावी है पर उसे अपनाने के लिए योग्य बनना  आवश्यक है ।वैश्वीकरण ने जहां अवसरों की संख्या बढ़ाई  है ,वहाँ कुशल मजदूरों की मांग भी ।वोकेशनल शिक्षा को अभी तक युद्ध स्तर पर स्कूली शिक्षा  में शामिल नहीं किया गया है ।एक सर्वे के मुताबिक 2022 तक अकेले भारत में ही 50 करोड़ योग्य श्रमिक की ज़रुरत पड़ेगी ।सवाल है कि इतने योग्य श्रमिक पैदा करने की क्षमता क्या हमारे सरकारी तंत्र और उनसे जुडी शिक्षा तंत्र में है ?और अगर है तो उनके क्रियान्वयन में देर क्यों ? कार्य प्रणाली में बदलाव नहीं लाया गया तो हो सकता  आने वाले दिनों में पढ़े - लिखे मजदूरों की समस्या से  भी जूझना पड़े जिससे  निश्चित तौर पर बेरोज़गारी में इजाफा होगा
                                        श्रमिक दिवस सरकारी कैलेंडरों में लाल रंग से अंकित कर छुट्टी दिलाने की एक परंपरा बन कर रह गया है। छिटपुट सम्मान और योजनाओं  की घोषणा मात्र से श्रमिक दिवस की खानापूर्ति हो जाती है ।समय की मांग है कि ट्रेड युनियन जो अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं ,एक बार फिर से प्रभावशाली बनें और असंगठित क्षेत्र के श्रमिक मालिकों के साथ सीधा संपर्क साध कर बिचौलिए की भूमिका का नाश करें ।श्रमिक देश के विकास के मज़बूत स्तम्भ हैं ,उनकी शक्ति के अनुरूप उन्हें सुविधाएं मिलें तभी श्रम दिवस की सार्थकता है

कविता  विकास (लेखिका )
डी - 15,सेक्टर -9,कोयलानगर
धनबाद
Kavitavikas28@gmail.com

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