तू ही बता ज़िन्दगी
घड़ी की रफ़्तार से चलती ज़िन्दगी
कभी -कभी उससे भी आगे निकलती हुई
कोई तो बता दे यह भाग - दौड़
आखिर किसके लिए है ?
जब इसे भोगने का हमारे पास वक़्त नहीं ।
कितने बेबस हैं हम ,जिस ख़ुशी के लिए
दिन - रात एक करते हैं
उसे गुनगुनाने के लिए तरसते हैं ।
रिश्तों की परिभाषा खोजो तो
दिल नहीं ,किताबों को पलटते हैं ।
अहसासों की गर्माहट तो कब की ठंडी हो गयी
अब अस्थि कलश उठाने का भी वक़्त नहीं ।
दिली अरमानों का गला घोंट कर
परेशानियों का अंबार लगा लिया
लाचारी का आलम ऐसा कि
रोने के लिए भी कंधा तलाशते हैं ।
माँ की आँचल में नाक पोंछना याद है
लोरी की गुनगुनाहट याद है
याद नहीं तो बस वो सूरत
जिसकी झुर्रियों में अपना बचपन दीखता है ।
तृषा की जाल में फड़फड़ाता प्राण
खुली आँखों से सोता है
स्व से स्व को जुदा करके
ज़िंदा लाश होकर भी अकड़ता है ।
तू ही बता ज़िन्दगी
और क्या - क्या दूँ तुम्हें
तुम्हें जीने की आरज़ू में
पल -पल हम मरते हैं ।
कल 11/07/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
ReplyDeleteवाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
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