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Monday, 29 October 2012


     तू ही बता ज़िन्दगी 

घड़ी की रफ़्तार से चलती ज़िन्दगी
कभी -कभी उससे भी आगे निकलती हुई 
कोई तो बता दे यह भाग - दौड़ 
आखिर किसके लिए है ?
जब इसे भोगने का हमारे पास वक़्त नहीं ।
कितने बेबस हैं हम ,जिस ख़ुशी के लिए 
दिन - रात एक करते हैं 
उसे गुनगुनाने के लिए तरसते हैं ।
रिश्तों की परिभाषा खोजो तो 
दिल नहीं ,किताबों को पलटते हैं ।
अहसासों की गर्माहट तो कब की ठंडी हो गयी 
अब अस्थि कलश उठाने का भी वक़्त  नहीं ।
दिली अरमानों का गला घोंट कर 
परेशानियों का अंबार लगा लिया 
लाचारी का आलम ऐसा कि 
रोने के लिए भी कंधा तलाशते हैं ।
माँ की आँचल में नाक पोंछना याद है 
लोरी की गुनगुनाहट याद है 
याद नहीं तो बस वो सूरत 
जिसकी झुर्रियों में अपना बचपन दीखता है ।
तृषा की जाल में फड़फड़ाता प्राण 
खुली आँखों से सोता है 
स्व से स्व को जुदा करके 
ज़िंदा लाश होकर भी अकड़ता है ।
तू ही बता ज़िन्दगी 
और क्या - क्या दूँ तुम्हें
तुम्हें जीने की आरज़ू में 
पल -पल हम मरते हैं ।

2 comments:

  1. कल 11/07/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

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  2. वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |

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