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Thursday, 18 October 2012


  बिन डोर के 

कुछ लोग उतर जाते हैं दिल में 
बिन आहट ,बिन दस्तक के 
जैसे हो प्रारब्ध का कोई रिश्ता 
खींचे चले आते हैं बिन डोर के ।

सुषुप्त थीं अहसासों की गलियाँ
झकझोर दिया जादुई तरन्नुम में 
धड़कने लगीं थमती हुईं साँसे 
यह क्या ग़ज़ब किया पल भर में ।

न देखा, न जाना गहराई से ,पर 
आवाज़ की कशिश उनकी ऐसी 
कि लोकोलाज छोड़ उन तक 
पहुँच जाती पतझर की पत्ती सी ।

अब देखो उनके जुल्मो सितम 
कहते  हैं उन्हें भूल जाओ 
अग्नि परीक्षा कहाँ चाहा मैंने कि
झुलस कर तुम घायल हो जाओ ।

आहत कर मुझे तुष्टि पाते हो 
तुम अपने अहम् की
यह भी नायाब तरीका है तुम्हारा 
मुझे अपने पास लाने की ।

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