बिन डोर के
कुछ लोग उतर जाते हैं दिल में
बिन आहट ,बिन दस्तक के
जैसे हो प्रारब्ध का कोई रिश्ता
खींचे चले आते हैं बिन डोर के ।
सुषुप्त थीं अहसासों की गलियाँ
झकझोर दिया जादुई तरन्नुम में
धड़कने लगीं थमती हुईं साँसे
यह क्या ग़ज़ब किया पल भर में ।
न देखा, न जाना गहराई से ,पर
आवाज़ की कशिश उनकी ऐसी
कि लोकोलाज छोड़ उन तक
पहुँच जाती पतझर की पत्ती सी ।
अब देखो उनके जुल्मो सितम
कहते हैं उन्हें भूल जाओ
अग्नि परीक्षा कहाँ चाहा मैंने कि
झुलस कर तुम घायल हो जाओ ।
आहत कर मुझे तुष्टि पाते हो
तुम अपने अहम् की
यह भी नायाब तरीका है तुम्हारा
मुझे अपने पास लाने की ।
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