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Wednesday 7 August 2013

अहिंसा के तीन रूप

शाब्दिक तौर पर किसी को मारने की इच्छा हिंसा कहलाती है और ऐसी इच्छा का न होना अहिंसा कहलाता है ।अहिंसा के तीन रूप हैं जो उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। किसी को अपने शरीर द्वारा कष्ट न पहुंचाने की इच्छा न करना शारीरिक अहिंसा है ।वाणी से कष्ट की इच्छा न करना वाचिक अहिंसा है और किसी का मन से भी बुरा न चाहना मानसिक अहिंसा है। अतः हमें मनसा ,वाचा और कर्मणा तीनों रूपों में हिंसा से  बचना चाहिए। आज के युग में अहिंसा का मतलब शारीरिक हिंसा न करने को ही लिया जाता है क्योंकि यह प्रत्यक्ष रूप में दिखाई पड़ता है। शरीर पर लगे चोट तो फिर भी मिट जाते हैं पर वाचिक हिंसा शायद सबसे ज्यादा आघात करता है क्योंकि यह मन पर वार करता है। मीठी वाणी का इसलिए बहुत महत्त्व है ।एक छोटी सी घटना सुनाती हूँ।एक  व्यक्ति  को वरदान में तीन गोले मिले जिसका इस्तेमाल वह तीन बार ही कर सकता था।   ।वह ख़ुशी - खशी अपने घर में घुस ही रहा था कि  उसका बेटा आकर उससे लिपट गया। इस अचानक के प्यार में एक गोला  गिर गया।  वह गुस्से में डपटा ,"तेरी आँखें नहीं हैं। "इतना कहते ही बच्चे की आँखें चलीं गयीं। व्यक्ति आसमान से गिरा ,उसे दूसरे  गोले की याद आयी। झट एक गोला  ज़मीन पर गिरा कर बोला  ,"मेरे बेटे के चेहरे पे आँखें लग जाएँ। "देखते ही देखते बच्चे के चेहरे पे कई आँखें निकल गयीं। उस भयानक सूरत को देख कर उसे झट तीसरे गोले की याद  आयी। उसने उसे भी फोड़ा और वर माँगा कि  बेटे का चेहरा केवल  दो आँखों के साथ  सामान्य हो जाये। इस तरह से मुश्किल से कमाए उसके तीनों वर वाणी  की असंयमता के कारण नष्ट हो गए।वाणी  किसी मनुष्य के अंतर को जानने का सीधा सा माध्यम है। जैसी सोच ,वैसी बोल। यह तो   सीधी सी  बात है कि  जो वाणी का अच्छा होता  है ,उसे सभी पसंद करते हैं। विद्यालय  ,ऑफिस ,व्यापार हर जगह यह लागू होता है। इस हिंसा को रोकने के लिए बस इतनी शपथ लेनी है कि  हम भले कुछ न बोलें   पर कड़वा न बोलें । यह शपथ गुस्से पर काबू करना भी सिखा देगा और बेबुनियाद बातों पर विश्वास करना भी छुड़वा  देगा। यानी एक वृत्ति  पर विजय पाना  कई वृत्तियों पर विजय पाने जैसा है।     हमारे मन के तार दूसरे लोगों ,यहाँ तक कि पशु - पक्षियों के तार से भी जुड़े रहते हैं इसलिए जब हम किसी के लिए बुरा सोचते हैं तो उसके मन में भी हमारे लिए दुर्भाव पैदा हो जाता है ।यदि हमारा मन किसी के लिए सद्भावयुक्त है तो उसके मन में हमारे प्रति कोई द्वेषभाव भी है तो वह समाप्त हो जाता  है ।महात्मा आनंद स्वामी ने अपनी जीवनी में कहा है कि जब वे स्वामी गंगागिरि के सान्निध्य में तप कर रहे थे तो एक शेर को उनकी ओर आते देख घबरा कर स्वामी जी को सचेत करना चाहा ,पर स्वामी गंगागिरि तटस्थ थे ।जब शेर उनके पास गया तब उन्होंने उसकी पीठ सहलाई और प्यार किया ।शेर परे चला गया ।अहिंसा को इसलिए परम धर्म कहा गया है जिसमे सब बैर ,भय और आशंका दूर हो जाते हैं ।

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