जाने कैसा यह
रोग है
बंद दरवाजों के अंदर
सहमे से इंसान
हैं
रोशनदान से आती
मंद हवाओं में
डूबती हुई साँस
है
खिड़कियों के झरोखों
से झाँकती
दहशत भरी आँखें
हैं
जाने क्यूँ इस शहर
की हवा बदल
गयी ।
परायों की कौन
पूछे
अपनों की नीयत
बदल गयी
माथे पर
बल पड़ी रेखाएँ
कभी सीधी नहीं
होती
मन का रोम
- रोम
जाने किस आतंक
में घर गया
है ।
महफूज़ नहीं अस्मिता
औरतों की
हिंसा और दुराचरण
है कहानी रोज़
की
रात के स्याह
की कौन पूछे
दिन का उजियारा
भी दागदार है
जाने क्यों हर शख्स
परेशां है।
नकाबों में असलियत
छुपाते हैं
एक चेहरे का बहुरूपिया
बनाते हैं
आतंक के बादल
छटते नहीं
शोर है तो
केवल दबंगों के
आम आदमी कौड़ियों
के भाव बिकते
जाने कैसा यह
बदलाव है ।
भूल कर भाई-
चारे का नाता
खो कर माँ
- बहनों का रिश्ता
हर कोई अपने
में मगरूर है
अपनी मनमानी को हथियार
बना
खोज रहा
नया शिकार है
तभी तो आज
मानवता शर्मशार है।
जन का
तंत्र गौण हुआ
राज करते बाहुबली
हैं
गुलामी के साए
में विचार पलता
है
कलम का ज़ोर
चलता नहीं
जोश और जुनून
उमड़ता नहीं
जाने कैसा यह
रोग है।
चेतना लुप्त , संवेदना सुषुप्त
है
किसी मसीहा का क्यों
इंतजार करें
गुमनामी का सेहरा
हटा कर
आवाज़ आक्रोश का बुलंद
करें
अपने मर्ज का
स्वयं इलाज करें।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल गुरूवार (07-03-2013) के “कम्प्यूटर आज बीमार हो गया” (चर्चा मंच-1176) पर भी होगी!
सूचनार्थ.. सादर!
अजब मंजर है इन दिनों !
ReplyDeleteमगर स्वयं ही कुछ करने का सार्थक सन्देश !
भावपूर्ण प्रस्तुति.
ReplyDeletedhanywaad aap sabhi ko
ReplyDelete