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Wednesday 6 March 2013


जाने कैसा यह रोग है

बंद दरवाजों के अंदर
सहमे से इंसान हैं
रोशनदान से आती मंद हवाओं में
डूबती हुई साँस है
खिड़कियों के झरोखों से झाँकती
दहशत भरी आँखें हैं
जाने क्यूँ इस शहर की हवा बदल गयी
परायों की कौन पूछे
अपनों की नीयत बदल गयी
माथे पर  बल पड़ी रेखाएँ
कभी सीधी नहीं होती
मन का रोम - रोम
जाने किस आतंक में घर गया है
महफूज़ नहीं अस्मिता औरतों की
हिंसा और दुराचरण है कहानी रोज़ की
रात के स्याह की कौन पूछे
दिन का उजियारा भी दागदार है
जाने क्यों हर शख्स परेशां है।
नकाबों में असलियत छुपाते हैं
एक चेहरे का बहुरूपिया बनाते हैं
आतंक के बादल छटते नहीं
शोर है तो केवल दबंगों के
आम आदमी कौड़ियों के भाव बिकते
जाने कैसा यह बदलाव है
भूल कर भाई- चारे का नाता
खो कर माँ - बहनों का रिश्ता
हर कोई अपने में मगरूर है
अपनी मनमानी को हथियार बना
खोज  रहा नया शिकार है
तभी तो आज मानवता शर्मशार है।
जन  का तंत्र गौण हुआ
राज करते बाहुबली हैं
गुलामी के साए में विचार पलता है
कलम का ज़ोर चलता नहीं
जोश और जुनून उमड़ता नहीं
जाने कैसा यह रोग है।
चेतना लुप्त , संवेदना सुषुप्त है
किसी मसीहा का क्यों इंतजार करें
गुमनामी का सेहरा हटा कर
आवाज़ आक्रोश का बुलंद करें
अपने मर्ज का स्वयं इलाज करें।

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल गुरूवार (07-03-2013) के “कम्प्यूटर आज बीमार हो गया” (चर्चा मंच-1176) पर भी होगी!
    सूचनार्थ.. सादर!

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  2. अजब मंजर है इन दिनों !
    मगर स्वयं ही कुछ करने का सार्थक सन्देश !

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  3. भावपूर्ण प्रस्तुति.

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