बरसा दो सावन
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कुछ रंग बरसा दो सावन 
खिल उठे फुनगी - फुनगी मनभावन
जरा देखा है विस्तृत शाखों ने 
सुख की गति खो कर अगन में 
विलग हुए थे पात - पात 
होकर रुग्ण जीवन समर में 
कुछ अमृत बरसा दो सावन 
जी उठे मरणासन्न से कानन। 
कैसे भूलूँ वह उत्ताप काल 
अंजुरी भर के सूरज का 
फट - फट कर धरती रोई थी 
कहर बरपा था प्रचंड समीर का 
कुछ बूँदें बरसा दो सावन 
भर जाए धरती का  दामन। 
वन - प्रांतर है जीवन - गाथा 
हर्ष - विषाद का आना और जाना 
ठूंठ खड़ा रहा जो निर्भीक ,निडर
कुसुमाकर का सुख उसने ही जाना 
कुछ सुध बरसा दो सावन 
आनंद ,उमंग हो सर्वत्र पावन। 
 
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