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Saturday 20 April 2013


मेरी  तीन  कविताएँ


 दीवार
हमारे दरम्यां एक दीवार है
बहुत ही पारदर्शी , झिलझिली सी
फिर भी हमारी आवाजें पहुँचती हैं
सूरत ही एक - दूजे की दिखती है
यह दीवार है ख़ामोशी की
जो कुछ तरंगें प्रवाहित कर
हमारे हृदय के तार झंकृत कर देती है
और एक - दूसरे को बेहद करीब ला देती है 
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दूर्वा
द्रुमों की कतार ने अनेक बार उलाहना दिया
हम भी क्यों होते उनकी तरह विशाल
छाया और सुकून की बरसात करते
हवा का एक तेज़  झोंका जब
विलग कर दिया शाख और पात को
तब मैंने भी जतला दिया
मैं तो   दूर्वा ही भली ,इतनी छोटी कि
कहीं भी उग जाऊं ,कभी टूट पाऊं
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नदी
अपनी उष्णता से दिवास्पति
पिघला जाता मुझे द्रुतगति
कतरा - कतरा बर्फ का शिला
पानी बन बह निकला
मैं निर्विरोध ,अविरल बहती
रुकना नहीं मेरी प्रकृति
सभ्यताओं का उत्थान - पतन
किनारों पर मेरे है दफ़न
मेरी सीमाओं को बाँध कर जब छला
मैंने विपदाओं में स्वयं को उड़ेला
विकराल ,वीभत्स जब होती हूँ
मानवता का विध्वंश करती हूँ
मेरी गतियों का बन अवरोधक
मैं हूँ जीवन - पर्याय ,यही ज्ञान - उद्बोधक

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