मेघ उतरता है
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पतझड़ सी नीरवता से जब 
मन भर जाता है 
मेघ उतरता है नैनों में 
आसमान रीत जाता है। 
वितथ जीवन का तथ्य 
मैं अकिंचन क्या जानूं 
दिन - रात की आपाधापी में 
जीवन - संगीत जाता है। 
आजमाती है ये दुनिया 
बिखरा के कांटे पथ में 
ये तो मेरा जज़्बा है जो 
बन मीत जाता है। 
जलाया है दहलीज पे 
एक चराग तेरे नाम का
तम की गलियों से अब कौन 
भयभीत जाता है। 
हो आँखों के नीर तुम 
दुःख में और सुख में भी 
उर - वीणा के तार छेड़ 
लिखा प्रीत जाता है। 
मिज़ाजे मौसम की मानिंद 
बदलते हैं इंसां भी नित 
संग दो पल की आरज़ू में 
बरस बीत जाता है। 
शज़र हूँ तेरे चमन की पर 
चहकते नहीं परिंदे कभी 
मन की दरीचों से पिघल 
नहीं शीत जाता है। 
दम्भ के छद्म घेरे में  
विचरते 
प्रस्तर प्राण हैं  
साँसों की होड़ लगा कौन 
ताउम्र जीत जाता है। 
गहन कुहरा छाता है जब 
दुःख संत्रास घूटन का 
तुम्हारी यादों के आफ़ताब से 
बन अतीत जाता है।
 
 
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (22-06-2016) को ""वर्तमान परिपेक्ष्य में योग की आवश्यकता" (चर्चा अंक-2381) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर ..
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
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